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Wednesday, February 14, 2018

जो गया सब उसके ही खातिर

A poem of Umesh chandra srivastava 

जो गया सब उसके ही खातिर ,
रो रहे-चिल्ला रहे। 
जमीं पर रखी है मिट्टी ,
बोलते-बतिया रहे।  
कर्म कैसा उसका था ,
सब उसपे जुमले गा रहे। 
गर रहा-इतिहास बोधक ,
गा रहे बता रहे। 
दे गया विमर्श दृष्टि ,
गाथा उसकी कह रहे। 
समझ करके उसकी रेखा ,
उसकी ही समझा रहे। 

फर्श पर जो शख्सियत है ,
वह रहा मगरूर या ,
जीवनों की डोर में ,
अलमस्त पवन सा बह रहा। 
या कि उसने कर्म बल पर ,
कुटुम्बों को जोड़ रक्खा। 
या कि उसने शब्द बल पर ,
शब्द का इतिहास रच कर ,
दे गया नव नई पीढ़ी को ,
कोई संधान दृष्टि। 
या कि उसने कुछ नहीं बस ,
ज़िन्दगी की डोर बंधी। 
खाया-पीया ज़िन्दगी भर ,
दे गया कुछ अटपटा सा , 
जो विचारों में ,
समन्वय की दृष्टि भी ,
न पा सका। 
या कि उसने वृष्टि दे दी ,
अब बढो उसको संवारो। 
या कि उसने नीवं रख दी ,
अब गढो-उसपर चढ़ो। 
या कि उसने ,
उस नियंता के ,
अमर पट खोल कर ,
दर्शनों का जाल सारा ,
खूब बनाया तौल कर। 

क्या कहें उसकी कहानी 
अब निशानी शेष है ,
कुछ रहे ऐसे दीवाने ,
जो रहे अवशेष हैं ,
क्या कहें -अब क्या सहें ,
सब गुम्फितों में शेष है। 
              जो गया सब उसके ही खातिर ,
              रो रहे चिल्ला रहे। 
  



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

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