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Wednesday, February 28, 2018

निकल सको तो हे नेता जी

A poem of Umesh chandra sarivastava

निकल सको तो हे नेता जी ,
जुमलों से तुम निकल सको।
बड़ी आंधियां आतीं हैं जब ,
सब सरसाये लगते हैं।
कोना अतरा खोज-खाज के ,
सब ओलियाये लगते हैं।

निकल सको तो हे नेता जी ,
झूठ मार्ग से निकल सको।
मत भरमाओ जनता को तुम ,
सही मार्ग दिखलाओ बस।
अपनी करनी का तुम चिट्ठा ,
सही-सही बतलाओ तुम।
यह क्या-जो अपराध किया है ,
सांठ-गाँठ को त्यागो तुम।
निकल सको तो हे नेता जी ,
बतरंगी से निकल सको। (क्रमशः )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra sarivastava 

Wednesday, February 14, 2018

जो गया सब उसके ही खातिर

A poem of Umesh chandra srivastava 

जो गया सब उसके ही खातिर ,
रो रहे-चिल्ला रहे। 
जमीं पर रखी है मिट्टी ,
बोलते-बतिया रहे।  
कर्म कैसा उसका था ,
सब उसपे जुमले गा रहे। 
गर रहा-इतिहास बोधक ,
गा रहे बता रहे। 
दे गया विमर्श दृष्टि ,
गाथा उसकी कह रहे। 
समझ करके उसकी रेखा ,
उसकी ही समझा रहे। 

फर्श पर जो शख्सियत है ,
वह रहा मगरूर या ,
जीवनों की डोर में ,
अलमस्त पवन सा बह रहा। 
या कि उसने कर्म बल पर ,
कुटुम्बों को जोड़ रक्खा। 
या कि उसने शब्द बल पर ,
शब्द का इतिहास रच कर ,
दे गया नव नई पीढ़ी को ,
कोई संधान दृष्टि। 
या कि उसने कुछ नहीं बस ,
ज़िन्दगी की डोर बंधी। 
खाया-पीया ज़िन्दगी भर ,
दे गया कुछ अटपटा सा , 
जो विचारों में ,
समन्वय की दृष्टि भी ,
न पा सका। 
या कि उसने वृष्टि दे दी ,
अब बढो उसको संवारो। 
या कि उसने नीवं रख दी ,
अब गढो-उसपर चढ़ो। 
या कि उसने ,
उस नियंता के ,
अमर पट खोल कर ,
दर्शनों का जाल सारा ,
खूब बनाया तौल कर। 

क्या कहें उसकी कहानी 
अब निशानी शेष है ,
कुछ रहे ऐसे दीवाने ,
जो रहे अवशेष हैं ,
क्या कहें -अब क्या सहें ,
सब गुम्फितों में शेष है। 
              जो गया सब उसके ही खातिर ,
              रो रहे चिल्ला रहे। 
  



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, February 3, 2018

कविता

A poem of Umesh chandra srivastava 

दम तोड़ती कविता,
घिघियाती कविता ,
राह की तलाश में ,
भटकती कविता।
तमाम धाराओं ,
आंदोलन में ,
सिमटती कविता।
हर कालावधि में ,
प्रवंचना की पात्र ,
बनती कविता।
लगातार-
तमाम अवरोधों ,
विरोधों को सहती कविता ,
बराबर चल रही है।
या बराबर खल रही है।
क्या किया जाए ,
इस कविता को लेकर।
मौन पड़ी ,
पुकार रही ,
या फिर ,
कुंडली मार रही ,
इस कविता का !




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umehs chandra srivastava 

Thursday, February 1, 2018

छांट

A poem of Umesh chandra srivastava

जीवन की आंव में ,
सारे दांव चल चुके।
अब मोहताज ,
दाना पाने को।
पूरे जीवन -
सबको काटा-छाटा !
तो अब , जीवन के ,
इस ठौर में ,
छांट दिए गए।
समाज , कुटुंब
और परिवार से भी।



उमेश चंद्र श्रीवस्तव-
A poem of Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...