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Tuesday, January 30, 2018

मैं जीने के लिए आया हूँ

A poem of Umesh chandra srivastava 


मैं जीने के लिए,
आया हूँ ,
काया का ,
जाना तँय है। 
मगर-
वह जीवन चाहिए ,
जो जाने के बाद ,
भी याद रहे। 
कुछ ऐसा हो ,
जिसे लोग ,
जाने के बाद भी ,
सहेज सकें। 
चर्चा कर सकें। 
वही जीवन ,
जीने आया हूँ। 
जहाँ पात्रों की ,
सरसराहट में ,
विचारो की पतंगें ,
उड़ें-लहरायें ,
लेकिन काटें न । 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, January 27, 2018

माँ

A poem of Umesh chandra srivastava

माँ तुम्हारी याद में ,
बरसों गुजारे हैं।
तुम्हारी बात के-ओ माँ ,
बहुत किस्से सँवारे हैं।
बड़ी मुद्दत हुई ,
अब आंचलों की ,
फिर ज़रूरत है ,
मगर हम क्या करें ,
जो सत्य है ,
स्वीकार करना है।
ज़माने में ,
बहुत चेहरे ,
मगर माँ ,
तेरा चेहरा तो ,
सभी से खूब लगता है।
तुम्हारी आँख में ,
ओ माँ ,
जहां  का नूर बसता है।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 
A poem of Umesh chandra srivastava

Friday, January 26, 2018

गणतंत्र दिवस मुबारक हो

A poem of Umesh chandra srivastava 


सुन्दर दिवस मुबारक सबको ,
यही दिवस तो गहना है। 
भारत के ओ वीर सपूतों ,
इस आँगन में रहना है। 



 उमेश चंद्र श्रीवास्तव

Thursday, January 25, 2018

राष्ट्रध्वज

A poem of Umesh chandra srivastava

राष्ट्रध्वज के मान का ,
नूतन सवेरा।
विश्व विजयी ही रहे ,
कितना उजेरा।
संग-साथी-
प्रेम में सदभाव से ,
इस पर्व पर-
कुछ लें शपथ ,
इस चाव से।
रूप-रस की गंध में ,
इसके समाये ,
भाव में बरबस ही ,
इसका प्रेम लाएं ,
'औ' तिरंगे को ही,
बस आगे बढ़ाएं।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Wednesday, January 24, 2018

शब्द

A poem of Umesh chandra srivastava

शब्द को पकड़ना ,
शब्द को जीना ,
दोनों में फर्क है।
आज लोग ,
पकड़ रहे हैं शब्द ,
लेकिन जी नहीं,
रहे शब्द !



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, January 19, 2018

अमरत्वता की तलाश

A poem of Umesh chandra srivastava

शहर से दूर ,
प्रतिष्ठान पुरी में ,
वह रहने वाला ,
प्रतिष्ठित व्यक्ति ,
लोगों के घर-आँगन ,
में तिरता ,
और अपनी ,
रचना , कहानी में ,
उन्हीं लोगों को रचता।
बानगी में बेमिसाल ,
सबके हाल चाल की ,
चिकोटी काटने वाला ,
आज रसूलाबाद घाट पर ,
चित्त-चिता पर पसरा है ,
लोग उसे देखते-कहते ,
और तमाम प्रकार ,
संगत-असंगत ,
चुटकियों से नवाज़ते।
लेकिन-वह ,
सपाट चेहरे लिखने वाला ,
आज खुद सपाट पसरा ,
पता-नहीं क्या सोचता ,
कि तभी चिता की ,
लपटों में उसका शरीर ,
पंचतत्व में विलीन ,
होने को आतुर।
नम पड़ी आँखों के बीच ,
वह धीरे-धीरे , हो गया ,
पंचतत्व में विलीन।
किन्तु उसका वह रचाव ,
अब पायेगा ,
अपना असली मुकाम।
वह नवाज़ा जाएगा ,
न जाने कितने -
संगत-असंगत ,
विचारधाराओं से।
यही तो हर व्यक्ति का ,
और उसका भी ,
होता है लक्ष्य।
शारीर चला जाता है।
व्यक्ति नहीं रुक पाता ,
लेकिन व्यक्तित्व ,
ज़िंदा रहता है ,
अपनी अमरत्वता की ,
तलाश में।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, January 18, 2018

माघ मेला (चौपाई-4)

A poem of Umesh chandra srivastava

देखत माघ मकर सब कोई , सब जहँ राम राममय होइ।
राम धुनहिं गुंजहिं चहुँ ओरा , दिवस रात सब होइं चकोरा।।

चन्दन फूल अछत जग माहीं , सुरसरि तीर सबहिं सुख पाही।
जो नर ध्यान करई इन माहँइ , सो बैकुंठ जाई सुख पावइँ।।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, January 16, 2018

माघ मेला (चौपाई-3 )

A poem of Umesh chandra srivastava

जाके मन कछु नाहीं संदेहा , वह नर आई माघ कर सेवा ।
जनम मरण मुक्तन इहँ पाई , यही भूमि अतुलित हरषाई ।।

यही प्रयाग भूमी सुखदाई , वेद पुराण सबहि यह गाई ।
जो नर बसत प्रयाग-प्रयागा ,वह नर राम अनुज अनुरागा ।।

गावहि यहीं सब नर सुर संता , वेद पुराण यहां भगवंता ।
माघ माह भर सब सुर आवहिं , त्रिवेणी में सुखद नहावहिं ।।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, January 14, 2018

माघ मेला(चौपाई)

A poem of Umesh chandra srivastava 

गंगा-जमुना-सरस्वती तीरा , जो नर बसहिं पाये भव हीरा। 
राम अनुज संग भार्या आये , भारद्वाज मुनि अति हरषाये।।

यही प्रयाग की अतुलित भूमी , जुगत करत सब आवहि झूमी। 
यह पुनीत माह सुखद सुहावा , आवहुँ इहाँ-नाहीं पछतावा।। 

जे नर माघ मकर मह आयी , सो समझो जग में सुख पायी। 
कवन-कवन मैं वर्णन करहूँ , सीता राम अनुज इहँ रहियउं।।  (क्रमशः कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Saturday, January 13, 2018

माघ मेला (चौपाई)

A Poem of Umesh chandra srivastava

माघ पुनीत माह सुख दायी , आवइ जन सब लोग लुगाई।
अचरज कछु नाहीं इहँ कोई , माया मोह तजे सबे होइ।। 

घर दुआर तजि-जेजे आवहि , इहँ पर वह सब स्वर्ग मनावहि।
करम रगड़ कर ताप भी करहिं , मात पिता भ्राता सब अहहिं।।

सब कुटुंब यहीं बारहिं बारा , आवहिं नहाइ राम सुख पारा।
जग भर के सब लोगहि आवहिं , सीता राम गुनइ गुन गावहिं।। (क्रमशः कल )


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A Poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, January 12, 2018

मैं देश भक्त हूँ

A poem of Umesh chandra srivastava 

वह बड़े रुआब से कहता ,
मैं देश भक्त हूँ। 
सख्त हूँ। 
देश हित में ,
कड़े फैसले लेना ,
मेरा धर्म है। 
कर्म से देखा जाए ,
तो फैसला लेना ,
उसका मर्म है। 
यह बात और है ,
कि कुछ निजी-
पहलुओं पर ,
उसका फैसला ,
ढुलमुल है। 
ऐसे में कहा जा सकता है ,
वह मनुष्य रूप में ,
अधूरा है। 
क्योंकि सच्चा , मानव ,
वही है-जो ,
जो भी कहे ,
अंदर-बाहर एक सामान हो ,
वरना उसका सख्त होना ,
बेमानी है। 
निराधार है। 
बेकार है। 




 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, January 11, 2018

ढाई आखर

A poem of Umesh chandra srivastava 

ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ईश भी ,
जगदीश भी। 

ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ,
नराधम ,नर भिक्षु भी। 

ढाई आखर ,
प्रेम खातिर,
पाप ,पुण्य का मर्म भी। 

ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ,
देहं भी ,संयोग भी। 

ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ,
मर रहे हैं जीव भी। 

फिर विमर्षित,
क्यों भला हो ,
ढाई आखर की कला !
अजब की ,
यह बात यारों ,
ढाई आखर है बला। 

  
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, January 10, 2018

तेरा हाथ चाहूँ , लगन चाहता हूँ

A poem of Umesh chandra srivastava 

तेरा हाथ चाहूँ , लगन चाहता हूँ ,
तेरा  साथ जीवन सजन चाहता हूँ। 
वह थे राम-सीता धरम के धुरंधर ,
वही मीरा प्रेम-अगन चाहता हूँ। 
वह राधा रहीं ,नाते में कुछ भी कृष्णा ,
तुम राधा मैं मोहन-अमन चाहता हूँ। 
बड़े धीर थे वह तो पूरे धुरंधर ,
लखन लाल सा मैं सहन चाहता हूँ। 
सुदामा की बारी वो मीतों में उत्तम ,
उन्हीं जैसा साथी अमर चाहता हूँ। 
ये दुनिया , तूफानी बहुत दौड़ करती ,
इसी में ख़ुशी का पवन चाहता हूँ। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, January 8, 2018

एक मुक्तक

A poem of Umesh chandra srivastava 

अर्थ प्रधान युग है आया ,
चंदे से पार्टी में माया। 
और इसमें बना पोल है ,
तो फिर कहाँ ईमान की काया। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, January 7, 2018

एक मुक्तक

A poem of Umesh chandra srivastava

धूप खिली है ,मैं बैठा हूँ - कैसा लगता हूँ ,
रात सिली है , मैं जगता हूँ -कैसा लगता हूँ।
दुनिया की सब गच्च-मच्च में जीवन बीता है ,
अब तो राम से नैन लड़ी है-कैसा लगता हूँ।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, January 6, 2018

रोटी का समाजशास्त्र

A poem of Umesh chandra srivastava 

रोटी का समाजशास्त्र ,
व्यापक हो रहा ,
हर व्यक्ति ,
इसके भूगोल की पड़ताल में ,
दिख रहा। 
अब दो रोटी नहीं ,
जिससे पेट तर हो। 
अब भूख का भूगोल ,
समझना पड़ेगा। 
पृथ्वी की ही तरह ,
विज्ञान वेत्ताओं को -
खगालना पड़ेगा ,
कि इसकी व्यापकता क्या है ?
यह भूख इतनी व्यापक ,
क्यों हो रही है ,
कि पेट ही नहीं भरता। 
आदमी तरता रहता ,
सम्पूर्ण जीवन-
इसी की भक्की में ,
लेकिन भर नहीं पाता इसे। 



 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, January 5, 2018

एक मुक्तक

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम्हारे दर पे आता हूँ ज़रा विश्राम मिलता है ,
समाजिक द्वन्द की बातों से कुछ आराम मिलता है।
कहें अब क्या तुम्हारे पास आकर हे प्रभु हे राम ,
तुम्हारे आसरे ही यह जगत -ब्रह्माण्ड चलता है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, January 4, 2018

मुट्ठीभर कुछ लोग आये हैं

A poem of Umesh chandra srivastava

मुट्ठीभर कुछ लोग आये हैं ,
तंत्र-मन्त्र को रचने खातिर।
यह भारत है, देश है भाई ,
भाईचारा यहाँ अमिट है।
दे दो चाहे जितनी दुहाई ,
नहीं राग यह खोने वाला।
विश्व पटल पर भारत नक्शा ,
सदा-सदा ही खिलने वाला।
यह तो याद रखो मेरे बंधु ,
भारत विश्व का दर्पण है।
चारों जन ही सुखद यहाँ हैं ,
यही हमारा अर्पण है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 



Wednesday, January 3, 2018

एक मुक्तक

A poem of Umesh chandra srivastava 

हर सवाल का जवाब दे रही ज़िन्दगी ,
मोड़ जितने बने ,सी रही ज़िन्दगी। 
दो दिनों का सफर -प्रेम से गर कटा ,
तो समझ लो यह सार्थक हुई ज़िन्दगी। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, January 1, 2018

सत्य केवल ज़िन्दगी है

A poem of Umesh chandra srivastava 

सत्य केवल ज़िन्दगी है , सब पुरानी बात है। 
सत्य केवल बंदगी है , सब पुरानी बात है। 
याद कर लो ज़िन्दगी  का डोर सब निज हाथ है। 
जतन कर लो ज़िन्दगी का राग तेरे साथ है। 
कौन  कहता है तलाशो जंगलों में जा इसे ,
वह अगोचर तुम सही हो बात मेरी मान लो। 
सत्य केवल ज़िन्दगी है , सब पुरानी बात है। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...