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Monday, December 31, 2018

नया वर्ष सावन होगा

A poem of Umesh chandra srivastava

बीता वर्ष सुखद पावन था,
नया वर्ष सावन होगा।
मिथकों की न डोर चलेगी,
सत्य युक्त तन-मन होगा।

भय का सब माहौल गया अब,
निर्भय बन आगे आओ।
कौन दुष्ट है जो यह करता,
उसको मुक्की दिखलाओ।

नव नूतन यह वर्ष हमारा,
सब जन लोग प्रफुल्लित हो।
प्रेम-प्यार का रस खुब बरसे,
पूरा जग अभिसिंचित हो।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Thursday, December 27, 2018

आज तारे झांकते हैं आँख खोले

A poem of Umesh chandra sriavstava


आज तारे झांकते हैं आँख खोले,
मत कहो, जो भी हो करना ,
कर लो हौले।
सृष्टि का नियम-सदा से रात ही है,
कर्म का खिलना सदा से प्रात ही है।
कहो जीवन के सफर में खो गए क्या ?
पा गए कुछ सार्थक सो गए क्या ?
जब भी सोओगे-सदा है ताप बढ़ता,
ज़िन्दगी के छोर में यह समय खलता।
मत रुको, बस चलते जाना ज़िन्दगी है।
एकला पथ पे चलना - बंदगी है।
तुम कहो अनुहार से जीवन सफल है।
मत कहो-बस बीतती यह ज़िन्दगी है।   



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra sriavstava 


Friday, December 21, 2018

एक कविता

A poem of Umesh chandra srivastava 


एक पल में बदल जाए ,
संसार यही है। 
कहीं दुःख है ,
कहीं सुख ,
व्यवहार यही है। 
आते हैं लोग ,
'औ' चले जाते हैं यहां ,
जिसका भी कर्म श्रेष्ठ ,
पतवार वही है। 
कुछ लोग निपट जाते ,
अपने में तिर हुए। 
कुछ सरस ही खिल जाते ,
संसार यही है। 
कहने को बाज़ीगर,
खुदा , भगवान यहां पे। 
पर देखा क्या किसी ने ,
संसार यही है। 
जहां झूठ का मुलम्मा ,
दीवार ढही है ,
सच्चे का बोल-बाला ,
संसार यही है। 
 



 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -  
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, November 28, 2018

हरिचरना

A poem of Umesh chandra srivastava

वह जो हरिचरना है ,
मोटा गया है।
खाते-खाते ,
सोटा गया है।

पहले पुरानी पार्टी में था ,
खूब जय बोला ।
लोटा भर-भर नहाया ,
न जाने अब ,
पता नहीं क्यों ?
नई आयी सत्ताधारी पार्टी का ,
कटोरा बन गया है।

हरिचरना की कोई ,
नीति-रीति स्पष्ट नहीं है।
जहां लोटा भरे ,
वही पोखरा चुन लेता है।
मरदजात  , कमबख्त-
अव्वल दर्जे का पैजामा है।

क्या किया जाए ,
अब तो हरिचरना जैसे बहुत हैं ! 
कहाँ-कहाँ डोल ,
थाली पीटा जाये ,
लोटा धारियों की जमात में।




 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, November 17, 2018

यही रंगशाला यही रंगभूमि -2

A poem of Umesh chandra srivastava 

बहुत रूप सागर के गागर में डूबे ,
ये रिश्ते तो एकदम समाये हुए हैं।
खिला गुल जो आंगन , उसी में हैं लिपटे ,
यह जंजाल सारे दिखाए हुए हैं।

मदों में हैं झूमे , सीना तान चलते ,
यह सारे ही रंग बनाये हुए हैं।
यहाँ कौन कैसे रहे , खुब सहे वह ,
सभी भूमिका तो लिखाये हुए हैं।

यहाँ तक कि बातों में माता-पिता को ,
ललन खुब अब तो छकाए हुए हैं।
यहाँ दुःख दलिद्दर सभी तो मिलेंगे ,
यह सारे मुखौटे लगाए हुए हैं।

किया तुमने क्या-क्या बताएंगे सबकुछ ,
यह तेरे जनाज़े में आये हुए  हैं।
यह बस्ती यहाँ पर करो रोल अपना ,
तो सारे कहेंगे जमाये हुए हैं।


क्रमशः... 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, November 16, 2018

यही रंगशाला यही रंगभूमि

A poem of Umesh chandra srivastava 

यही रंगशाला यही रंगभूमि ,
यहीं रंग में सब जमाये खड़े हैं। 
सभी तो मुसाफिर यहाँ इस जगत में ,
फिर काहे को धुनी रमाये पड़े हैं। 

जरा गौर करके तो देखो-जगत को ,
लिखी पटकथा को जमाये हुए हैं। 
सभी बोलते चलते फिरते यहाँ पे ,
वह संवाद सारे रटाये हुए हैं। 

हुआ जन्म , उत्सव का दस्तूर है भी ,
वह दस्तूर तो बस बनाये हुए हैं। 
हुआ बालपन तो बहुत खेला-कूदा ,
जवानी में कुछ लड़खड़ाए हुए हैं। 

क्रमशः... 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, November 12, 2018

शूर्पणखा

A poem of Umesh chandra srivastava

क्या शूर्पणखा जरूरी है
राम का अस्तित्व समझने के लिए।
क्या राम का अस्तित्व
शूर्पनखा बिना अधूरा है।
समझने वाली बात है ,
स्त्री विमर्श के -
इस दौर में।
पुरुष की मनःस्थिति
वही  है
जो पहले थी।
विचार करने के लिए
स्त्री पर बात होती है ।
लेकिन , हकीक़त में
स्त्री तो ,
पुरुष के ह्रदय में ही सोती है
पुचकारने , दुलारने
और खेलने के लिए।
स्त्रियाँ - आदि काल से
विमर्श के केंद्र में हैं।
लेकिन यह पुरुष सत्ता
क्या उसे महत्व दे पाया।
समझने वाली बात है। 
भ्रम में मत रहो स्त्रियों।
लड़ो-बढ़ो
और मुहं तोड़ जवाब दो।
क्योंकि तुम्हारी महत्ता ,
पुरुष सत्ता से
कम नहीं।



उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, November 6, 2018

पावन सुखद दीवाली आयी

A poem of Umesh chandra srivastava



पावन सुखद दीवाली आयी ,
हर घर-घर में खुशियां छायी।

हर्षित बच्चे फोड़ें पड़ाका ,
धूम-धड़ाका धूम-धड़ाका।
माँ लेकर के लावा चिउरा ,
लाई लायी लेकर मिठाई।

          पावन सुखद दीवाली आयी ,
          हर घर-घर में खुशियां छायी।
सुन्दर प्यारा त्यौहार हमारा ,
बढ़ता जिससे भाई-चारा। 
बाँट-वांट कर खाएं मिठाई ,
अद्भुत दिवस आज है भाई। 
         पावन सुखद दीवाली आयी ,
         हर घर-घर में खुशियां छायी।
सांझ पहर लक्ष्मी गणेश को ,
दीप जलाएं सब मिल भाई। 
प्रेम प्यार का छटा बिखेरें,
दीपावली आयी है भाई । 
          पावन सुखद दीवाली आयी ,
          हर घर-घर में खुशियां छायी। 






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, October 27, 2018

जन-मन तुम भयक्रान्त न होना

A poem  of Umesh chandra srivastava 



जन-मन तुम भयक्रान्त न होना ,
मन दृणज्ञ कर आगे बढ़ना। 
दुष्ट , निशाचर सब भागेंगे ,
खुद पर बस विश्वास तुम करना। 

मिथ्य बात की रेल बनाकर ,
कब तक पटरी पे  दौड़ाएंगे। 
रण मेरी बज उठी लोग की ,
मिथ्याचारी से न डरना। 

उड़ी तश्तरी फिर लौटेगी ,
जुगती का उपहास न करना। 
पूरी तन्मयता से डट कर ,
अपना पूर्ण समर्थन देना। 

बदल रहे जो मिथ्याचारी ,
उन पर कुछ तुम ध्यान न देना। 
अपनी करनी का फल भोगें ,
ऐसा ही विशवास तुम करना। 

बड़े चतुर हैं मिथ्यावादी ,
मिथक बहुत से जोड़ेंगे वह। 
पर तुम दृढ़-दृढ़ज्ञ बन करके ,
उनका बस प्रतिकार ही करना। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem  of Umesh chandra srivastava 

Friday, October 26, 2018

अब बिस्तर भी है , पलंग भी है

A poem of Umesh chandra srivastava


अब बिस्तर भी है , पलंग भी है।
सुख भी है, पैसा भी है।
लेकिन हम सबने चैन गंवाई हैं।
मोनू को स्कूल जाना है ,
और मुनिया की पढ़ाई भी है।
बड़ी हो जायेगी मुनिया ,
तो उसकी शादी भी रचवानी है।
मुन्ना से हम-आज भी बेफिक्र हैं ,
वह रात-बिरात चाहे जब लौटे ,
लेकिन मुनिया के लिए चिंतायी हैं।
बराबरी के दर्जे की बात करने वालों।
कहाँ यह बात सुहाई है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, October 18, 2018

आज फिर वह हवा रंग में आ गयी

A poem of Umesh chandra srivastava


आज फिर  वह हवा रंग में आ गयी ,
राम की बात फिर से जहां छा गयी।
बोल में घोल की वह सभी रंगतें ,
फिर से अपनी छटा को वह बिखरा गयी।
श्वेत अम्बर तना-आसमा देखिये ,
यह धरा आज फिर गुनगुना सी गयी। 
बोल-अनबोल सारे चहकने लगे ,
सुर मयी बात की अब घटा छा गयी।




उमेश  चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, October 13, 2018

मेरा जीवन सब के लिए है

A poem of Umesh chandra srivastava


मेरा जीवन सब के लिए है ,
दिए जलाओ , हर घर-घर में।
प्रेम-प्यार का रस बरसाओ ,
हर मानव में प्रेम बढ़ाओ।

जीवन का है प्यार ही गहना ,
सहना-सहना सब कुछ सहना।
पर जीवन में दम्भ न करना ,
मानव हो मानव सा रहना।

कुछ अनमोल छणिक छणिका को ,
जीवन का उसे मूल्य समझना।
जो भी दोगे - वही मिलेगा ,
फिर क्या रोना धोना झूठा।

जीवन के आवृत्त सफर में ,
हर्षित पुलकित हरदम रहना।
         मेरा जीवन सब के लिए है ,
         दिए जलाओ , हर घर-घर में।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 










Thursday, October 4, 2018

तुम्हारे बाहं में

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम्हारे बाहं में ,
आनंद का सार ,
मन विहंग -पूरा निस्सार।
      तुम्हारे बाहं में ,
      आनंद का सार।

कौतुहल , संवेग 
आवेग सब विस्तार ,
मगर तुम्हारे बाहं में,
उन सब का निस्सार।

तुम कौन
सरस नीर का
अनमोल रहस्य।
तुम्हारे नीर में
अनुपम
युगबोध का संसार।
         तुम्हारे बाहं में ,
         आनंद का सार।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, September 21, 2018

तुलसी बाबा

A poem of Umesh chandra srivastava


राम चरित मानस का ,
पाठ करते-करते ,
अचानक , तुलसी बाबा की ओर ,
ऊँगली उठ गयी।
आखिर तुलसी बाबा ने ,
क्यों नहीं रत्नावली के प्रति ,
अपने धर्म का पालन किया ,
जबकि उनके आराध्य राम ,
हरण की गयी सीता के प्रति ,
पूरी तरह पति धर्म का ,
निर्वहन किया।
तमाम धर्मशात्र ,
कर्मशास्त्र का पाठ कराने वाले ,
तुलसी बाबा ने ,
क्यों नहीं अमल किया ,
उन बातों को।
क्या यहां भी ,
वही उक्ति ,
चरितार्थ होगी ,
' बहु उपदेश कुशल बहुतेरे। '







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, September 19, 2018

नहीं चाहिए सम्पति हमको

A poem of Umesh chandra srivastava



नहीं चाहिए सम्पति हमको ,
नहीं चाहिए वह व्यवहार।
जिसमें तेरी चर्चा न हो ,
नहीं चाहिए वह इतवार।

ढूंढन में सब नयन झरोखे ,
अंग-वंग  विगलित रहते।
वही संग मैं ढूँढू कब से ,
जिसमें तेरा हो आकार।

बन , उपवन , पर्वत , जंगल हो ,
नदी-नार , पोखर , गड्ढे।
धरा , गगन , दरख्त तले तुम ,
रहती हो एकदम निर्विकार।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastava  

Tuesday, September 18, 2018

जीवन पथ पर संघ-संघाती

A poem of Umesh chndra srivastava


जीवन पथ पर संघ-संघाती ,
इनसे ही बारात सजी।
अकुरित जीवन सब सुख देता ,
जब जीवन संग-संग चले।
आरी! मंजू की शीतल छवियाँ ,
तुमसे ही सब राग रंग।
जब भी टूटा इस जीवन में ,
सुरभित तेरी छांव मिली।
कहाँ निराला , बेढंगी मैं ,
ढंग से मुझे बनाया भी।
मैं बौराया , पंछी सरपट ,
तुमने मार्ग दिखाया भी।
तेरा भाव , संग तेरा तो ,
धूप छाँव अंधियारे में।
सदा अडिग सी खड़ी रही तू ,
मेरे मन और द्वारे में।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chndra srivastava






Sunday, September 16, 2018

कम्बख्त नदी

A poem of  Umesh chandra srivastava


कम्बख्त नदी
इस नदी को जब देखता हूँ
तो उबल जाता हूँ।
बीते बरस
किसानों को
लील गयी थी यह नदी।
रोष से भर जाता हूँ
आवेशित हो जाता हूँ
कि जब-जब आता हूँ
इस नदी के दुआरे।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh chandra srivastava 










Thursday, September 13, 2018

तुम कहो तो चाँद पर

A poem of Umesh chandra srivastava


तुम कहो तो चाँद पर ,
चलके जलाऊँ प्रेम दीपक।
तुम कहो तो इस धरा को ,
आसमां में ढाल दूँ मैं।
तुम कहो तो ज्वार-भाटा को ,
सहज आकार दे दूँ।
तुम कहो तो मनुज जन का ,
मैं सभी संताप हर लूं।
तुम कहो तो कृष्ण सा ,
अनुराग पूरे जग फैलाऊं।
तुम कहो तो आग को,
पानी बना के लय में लाऊँ।
तुम कहो तो द्वेष-ईर्ष्या का ,
सभी मैं पाट भर दूँ।
तुम कहो तो इस जगत को ,
शांतमय एकदम बना दूँ।
          तुम कहो तो चाँद पर ,
          चलके जलाऊँ प्रेम दीपक।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 








Tuesday, September 11, 2018

स्त्री

A poem of Umesh chandra srivastava


हर स्त्री
क्यों महसूस करती है
बादलों का बोझ।
क्यों यह मान चलती है
कि हम उसी के सहारे
उसी के लिहाफ पर
चल सकते हैं
और पा सकते हैं मुकाम।
खुद को क्यों नहीं संवारती
सूरज को छूने के लिए।








उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, September 7, 2018

नदी

A poem of Umesh chandra srivastava

नदी -१ 

नदी का बहना
तुम्हारे में
भाता है
अच्छा लगता है
लेकिन तुम बताओ
कितना थहाह पाई हो
अपने को।
नदी जैसी
गहराई की तरह।
बेसबब नदी बनने का ढोंग  
क्यों रचती हो।
नदी तो प्रवाह है।
नदी तो अथाह है।
और नदी तो नदी है।

नदी -२ 

तुम्हारे क़रीब से 
जब कोई नदी गुज़रती है 
तो क्या महसूस करती हो ?
नदी का बगल से 
गुज़र जाना 
कोई मज़ाक है क्या ?
यूँ ही महसूस कर लेती हो 
नदी का बगल से 
गुज़र जाना ! 
क्या समझती हो 
नदी को ?
नदी-एक नाद है। 
प्रेम-शांती और सबरस का प्रतीक है। 
तुममे है वह सब ! 
है क्या वह सब !!  






 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, September 5, 2018

ये नज़ारे ,ये जमुन का तट यह ,

A poem of Umesh chandra srivastava


ये नज़ारे ,ये जमुन का तट यह , 
यहाँ हैं फूल-सैकड़ों भौरे।
नज़र बचा के प्यार को आतुर ,
कहें इन्हें क्या - ये  कंवारे सब हैं।
करते हैं प्यार-ये हुजूम में भी ,
इनका तो प्यार देहं तक समझो।
यह जो चल रहा है दौर ,कम्बख्त बहुत ,
माँ-बाप का फिक्र कहाँ-सारे  बिन्दास हुए।
या खुदा-तुम ही करो कोई जतन ,
ये सारे कंवारे तो अब बर्बाद हुए।









उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, September 1, 2018

सोहै मुरली की तान सुहानी

A poem of Umesh chandra srivastava

सोहै मुरली की तान सुहानी ,
बड़ा नीक लागै देवरानी।
छोट-छोट  बहियाँ ले ,
नान्ह-नान्ह पउंवां ,
ठुमुक चलें 'औ' यशोदा लजानी।
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

धाए-धाए भागे ,
'औ ' धाए-धाए लुकाये ,
ढूँढत-फिरत , माँ हैरानी।
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

दंतुल दीखै , बदन छहराए ,
उसपे मोर मुकुट हरषानी ,
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

माखन खाये ,दही बिखराये ,
सारी गोपन को खूब चिढ़ाए ,
उसपे गोप खिसियानी।
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

अंजुरी भर-भर के हाथ नचावै ,
सब गोपन से रार मचावै  ,
करैं शिकायत , बड़ी परेशानी ,
          बड़ा नीक लागै देवरानी। 




उमेश  चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, August 31, 2018

तुम साँझ पहर

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम साँझ पहर
चुपके-चुपके
कुछ वस्त्र आदि
हल्के-फुल्के
कुछ अधर
नयन छलके-छलके
अतिरेक पवन का झोंका बन
बन फूल कमल
तुम आ जाना।
नाज़ुक सी नरम कलाई में
चूड़ी खनके , पायल बाजे
सब मदमाती अवगुंठन से
तुम निशा भवन में आ जाना।
तब देखो-कैसे प्रेम पुलक
सरसायेगा इस मौसम में
रुनझुन सारा , तन-मन होगा
आलोक शान्त का फैलेगा
दोनों प्राणी के सुख-दुःख कट
आनंदमयी वह क्षण होगा।
तुम साँझ पहर
चुपके-चुपके।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, August 30, 2018

प्रथम-प्रथम ( भाग २ )

A poem of Umesh chandra srivastava

(३)
मध्य रात्रि के बाद ,
उसके-उसकी तन्द्रा टूटी ,
वह कुछ होश में आया।
फटी आँखों से ,
उसने -उसे देखा ,
उठाया और ज़मीन से ,
बिस्तर पर लाया।
फिर क्या था ,
जब तक बातें और बढ़तीं ,
कि बाहर से ,
चिड़ियों की चहचहाहट ,
शोर गुल ,
प्रभात बेला में  गया।

(४)
खुले कमरे में ,
परिहास का दौर शुरू।
अचकचाई-सपकपाई ,
वह क्या कहे ?
अरमानों के गुलदस्ते का ,
कौन सा बंद खोले ?
क्या बोले-क्या तौले ?
वह रही खामोश ,
और दौर वह ,
एकतरफा ,
ठिठौली का चलता दौर।
जैसे बीती रात ,
एकतरफा दौर चला।
और दोनों ,
नींद की आगोश में ,
समाये-
अरमानों की गठरी में ,
लुकाए पड़े रहे।

(५)
रंगीन सपने का ,
वह प्रथम पहर ,
अब न आने वाला।
वैसे तो रिश्ते बनेंगे ,
ज़रूर आगे।
लेकिन वह उन्मेष ,
वह उत्तेजना ,
वह दर्पण ,
कहाँ बन पायेगा।
स्वप्न की गठरी ,
ठूठ की ठूठ ,
बंधी रह जायेगी ,
और पूरा जीवन कट जाएगा।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, August 27, 2018

प्रथम-प्रथम (भाग १ )

A poem of Umesh chandra srivastava

१. 
रंगीन सपनों का गुलदस्ता सजाये ,
बैठी वह , कि तभी ,
प्रथम रात्रि के ,
प्रथम मिलन की बेल आ गयी।
वह अकपकाई ।
उठी-और औचक खड़ी हो गयी।
कि तभी उसने देखा-उसका वह ,
लड़खड़ाता बिस्तर पर गिरा ,
फिर सो गया।
उसे लगा की उसका वह प्रथम गुलदस्ता ,
भरभरा गया। 


२.
घने रात के सन्नाटे में ,
वह भी चुपचाप ,
लाइट बुझा सो गयी ,
कि जैसे उसके -
अरमान की गांठें ,
बिन खुले ही ,
कस दी गयी हो। (शेष कल )







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Saturday, August 25, 2018

राखी भाई बहन का प्यार

A poem of Umesh chandra srivastava


राखी भाई बहन का प्यार ,
हाथ कलाई राखी बंधन ,
सुन्दर यह व्यवहार ,
        राखी भाई बहन का प्यार।

इस अटूट बंधन को माने ,
जाने जग संसार।
        राखी भाई बहन का प्यार ,

बहना ने बहाई को बंधा ,
स्नेह  , दुलार , व्यवहार।
       राखी भाई बहन का प्यार।
एक धागे से है संयोजन ,
इसका बहुत बड़ा आयोजन  ,
जीवन भर चलता यह प्रयोजन ,
सुन्दर सुखद सुदृण इकरार ,
       राखी भाई बहन का प्यार।

इस बंधन से मौसम सुधरे ,
सारे भाव मुखर हों उभरे ,
सदियों से यह चलता आया ,
 मधुर सलोना यह संसार।
       राखी भाई बहन का प्यार।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, August 24, 2018

वतन के वासते

A poem of Umesh chandra srivastava

वतन का तन ,
यह तन 'औ' मन ,
वतन के वासते ।

वतन मेरा ,
नयन मेरा ,
यह सारे रास्ते
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
हम मुस्कुराएं तो वतन ,
हम जीत जाएँ तो वतन ,
हमारे सारे हो जतन।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
हुआ जनम वतन लिए ,
गगन , मही वतन लिए ,
नाल , नदी 'औ' शिखर।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
ना कोई अंध बात हो ,
सभी ही जाति साथ हो ,
सभी बने , सभी तने।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते। 
तिरंगा हिन्द शान हो ,
जयघोष अमरगान हो ,
सपूत सारे जो डटे।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
जय हिन्द , जय हिन्द  , जय हिन्द ,
यही हमारे शब्द हों ,
मगन नयन-नयन।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Wednesday, August 22, 2018

मृत्यु आये तो तरसकर

A poem of Umesh chandra srivastava

मृत्यु आये तो तरसकर ,
मुझपे न उपकार करना।
कर्म जो नर ने किया है ,
उसको ही स्वीकार करना।

यह जगत है सर्जना का ,
सृजन में सब अणु जुटे।
टूट फूटन का यहाँ पर ,
ना कोई अधिभार रखना।

वह जलज का अंश केवल ,
बुलबुला तिर ठोस बनता।
प्राण वायु के भ्रमण से ,
वह सदा अनमोल तनता।

गहन गोचर मार्ग पथ पर ,
कर्म की बेली से चढ़ना।
वरना टूटोगे तुम ऐसे ,
वेदना का रस है खलना।

यह छलाछल काल ठहरा ,
सब प्रपंची जुट गए हैं।
मोह के अविराम पल में ,
सब ससंची लुट गए हैं।

तुम यहां रसधार लेकर ,
कृष्ण की माया को देखो।
वह अकेला इस जगत में ,
राम की बातों को छोड़ो।

            कृष्ण से अनुराग करना ,
            राम पर बस बात करना।
            मृत्यु आये तो तरसकर ,
            मुझपे न उपकार करना।











उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Sunday, August 19, 2018

तू है अनंत

A poem of Umesh chandra srivastavca



तू है अनंत ,
सब दिग दिगन्त।
हर कण-कण में ,
तेरा वसंत।

सारे पर्वत ,
सारी नदियां  ,
हर रूप स्वरुप में ,
तू अनंत।

कर्मों की बेल ,
अमर तू है।
गीता-पुराण  ,
उपनिषद , ग्रथ।
तू राम-श्याम ,
तू राधा है।
कैलाश शिखर ,
कल्याण धाम ,
सब जगह ही ,
तेरा है वसंत।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastavca 

Saturday, August 18, 2018

घसियारिन

A poem of Umesh chandra srivastava


घसियारिन है ,
घांस छीलती।
बच्चे दौड़-दौड़ आते ,
रोते-चिल्लाते वह जी भर ,
माँ का अंचल खींच कहते -
माँ चल घर को,
भूख लगी है। 
रोटी दे , तू रोटी दे।
माँ बरबस ही ,
डांट-डंपटती ,
जा घर में रोटी रक्खी है।
पर जिद वश बच्चे तो सरे ,
माँ के पास सुबक होते।
अंत में माँ है ,
माँ की ममता ,
घास छोड़ घर जाती है ,
बच्चों को वह रोटी देकर ,
पुनः घास रम जाती है।
माँ का यह तो प्रेम निराला ,
गाओ आल्हा , गाओ गीत।
माँ से परम कौन है जग में ,
माँ जैसा सुन्दर सा मीत।
                 घसियारिन है ,
                 घांस छीलती।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, August 17, 2018

अब तो तुम तो शिखर हो गए

A poem of Umesh chandra srivastava 


राग-रंग की इस दुनिया से ,
अंग-संग की इस दुनिया से ,
नश्वर इस शारीर को त्यग कर ,
अब तो तुम तो अमर हो गए ,
अब तो तुम तो शिखर हो गए। 

पञ्चतत्व के अधम जगत से ,
स्वार्थ युक्त इस मधु मंडप से। 
सारा कारा हार त्याग कर ,
अविरल स्वर दे , मुखर हो गए। 
अब तो तुम तो शिखर हो गए। 

मुक्त कंठ से सब गाएंगे ,
विचारों का पुंज संजोंकर ,
अपनी सुक्षम धार सौंपकर ,
अब तो तुम तो सगर हो गये ,
अब तो तुम तो  शिखर हो गए। 

जग का सत्य शाश्वत है यह ,
जो आया है , वह जाएगा। 
अपनी खुद की कीर्ति पाताका ,
जो  देकर करके गया जगत से ,
उसका गान सभी गाएंगे ,
अब तुम अविरल तत्त्व हो गए। 
                 अब तो तुम अमर हो गए ,
                 अब तो तुम  शिखर हो गए। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, August 16, 2018

कवि ह्रदय अटल जी को श्रद्धांजलि

A poem of Umesh chandra sriastava

अटल तुम्हारी रीति अलग थी ,
अटल तुम्हारी प्रीती अलग |
गर अब सोचें लोग उन्हें सब ,
तो निज देश अमर होगा |

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra sriastava

इस सूने-सूने से घर में

A poem of Umesh chandra srivastava



इस सूने-सूने से घर में ,
तेरी आहट प्रतिपल रहती।
मन मसोस कर रह जाता हूँ ,
तेरी चाहत प्रतिपल रहती।


भाव-भवन में स्मृति ताज़ी ,
सावन मौसम है यह पाजी।
भादव मास रसायन देता ,
विगलन कहाँ-कहाँ हंस कहती।

बड़े चाव से रस मर्दन कर ,
बड़े भाव से चितवन हर पल।
लुभा-लुभा अब भी जाता है ,
अकुलाहट पल-पल ही रहती।

मौसम का जो ऋतु छाया है ,
नवल-नवेली चाहत हंसती।
कुम्हलाया तन-मन यह सारा ,
ज़िम्मेदारी हर पल डसती।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, August 14, 2018

एक कविता

A poem of Umesh chandra srivastava 



वह पगली ,
गगरी की तरह बैठ गयी। 
जब उसे ,
स्वतंत्रता दिवस पर ,
फहराए गए तिरंगे की ,
मिठाइयां दीं जा रहीं थीं। 
आँखों में चमक ,
बदनों में कुलबुलाहट ,
और हाथों में ,
मजबूती पन था। 
दबी-कुचली-दुत्कारी गयी ,
वह पगली ,
अब एकदम अलग थी ,
मानों वह जानती है ,
आजादी का अर्थ ,
तिरंगे का महत्व  ,
और जबकि यह सब...............!


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, August 12, 2018

सवाल पूछता हूँ

A poem of  Umesh chandra srivastava

सवाल पूछता हूँ ,
जवाब चाहिए।
बातों में न लुभाना ,
वह काम चाहिए।

कहा था तुम्ही ने ,
आयेंगे अच्छे दिन।
अब क्या हो रहा है ,
जवाब चाहिए।

बैठे वहां पर तुम ,
कहते वहां पर तुम।
चुनावों की बात का ,
हिसाब चाहिए।

बेटी पढ़ाया तुमने ,
बेटी बढ़ाया तुमने।
क्या हो रहा है अब ,
इंसाफ चाहिए।





उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh chandra srivastava 

Saturday, August 11, 2018

तुम

A poem of Umesh chandra srivastava


तुम अक्सर लोगों को ,
ईमानदार बनने की सीख देते हो।
कहते हो , आगे बढने का ,
यह गहना है।
इसी के हद में रहना ,
अगर आगे है बढना।
पर मैं देखता हूँ कि तुम ,
तुम तो इमानदार नहीं लगते।
सरे छल-प्रपंच अपनाते हो ,
अपना कद ,अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए।
तुम तो झूठ भी ,
बड़े धड़ल्ले से बोलते हो।
और दूसरे से कहते-फिरते हो।
ईमानदार बनो ,
सत्य बोलो  ,
आपस में प्रेम करो।
आखिर ऐसा क्यों करते हो तुम ,
क्या प्रगतिशीलता का ,
आज के समय में ,
यही है मायने !





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, August 5, 2018

तुम्हारी कविता

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम्हारी नई कविता संग्रह आ गयी ,
फिर तुमने उन्हीं से लिखवाया ,
अपने समर्थन में उद्बोधन।
वैसे तो-तुम-उन्हें निपट कपटी समझते हो ,
पर उनसे लिखवाने के पीछे ,
तो तुमने मार्केटिंग का तर्क दिया ,
वह समझ में नहीं आया।
क्या तुम्हारी कविता  ,
उन्हीं मार्केटिंग के सरमायेदारो के ,
लिहाफ पर टिकेगी। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 



Thursday, August 2, 2018

जन्म दिवस है गीत मैं गाऊं

A poem of Umesh chandra srivastava




जन्म दिवस है गीत मैं गाऊं ,
श्रद्धा से मैं शीश नवाऊं |
तुम तो ब्रती , रथी थे इतने ,
क्या-क्या तेरा दर्प दिखाऊं |

राम काव्य की सारी महिमा ,
गया बड़े सलीके से |
और कृष्ण की कथा-कहानी ,
पेश किया अलीके से |

तुम तो मैथिलि अमर हो गये ,
हम सब तेरे चरण रज हैं |
माँ वीणा से विनती इतनी ,
हमको भी मुखरित स्वर दे |

राग द्वेष से मुक्त रहूँ मैं ,
राम कृष्ण की गाथा गाऊँ |
जो भी बिम्ब छोड़ गये तुम ,
उन बिम्बों का रस बतलाऊं |

उमेश चन्द्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, August 1, 2018

सत्य

A poem of Umesh chandra srivastava


उस पार गयी तुम सखी सुखद
उस पार का जीवन क्या होगा ?
इस पार-सखी सब भोग-जोग
उस पार बताओ क्या-क्या है ?

इस पार सखी सब स्वाद-वाद
सुख , समृद्धि और मोह पाश ,
उस पार सखी जीवन  कैसा  ?
उस पार भी क्या यह वैभव है ?('स्मृति' काव्य संग्रह से )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 


Saturday, July 28, 2018

हक़ीक़त ज़िंदगानी है 'औ' बाकी आग-पानी है,

A poem of Umesh chandra srivastava

१. 
हक़ीक़त ज़िंदगानी है 'औ' बाकी आग-पानी है, 
वो पगली तो दीवानी है 'औ ' बाकी आग पानी है।
कसर कोई नहीं रह जाये , पूरी जिन्दगानी में ,
यह मौका फिर नहीं मिलता-यही जन की कहानी  है।

२.
शहर के हर तिराहे पे-मिलेंगे मनचले एैसे ,
कि जैसे फेकदानी से पकड़ लेंगे वह हर पंछी।
निगाहों में दीवानापन-यही उनकी निशानी है ,
बिदक कर बात वह करते-यही उनकी चिन्हानी है।

३.
तुम्हारे पास कुछ तो है ,  जहां से हम खींचे आते ,
बहुत पैबंद रखती हो - कहाँ से यह  हुनर सीखा।
बताओ इस अदा को हम-कहाँ , क्या नाम भी रक्खें,
उठाकर फेर लेती हो- यही उल्फत दीवानी है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 
  A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, July 27, 2018

मुझको तो ज़माने से कहीं कोई गिला नहीं

A poem of umesh chandra srivastava

मुझको तो ज़माने से नहीं कोई है गिला ,
जो भी मिला उसी से बढ़ाया है सिलसिला।
कहने को मुकद्दर भी बड़ी चीज़ है मगर ,
तदबीर के बिना भी कभी कुछ नहीं मिला।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of umesh chandra srivastava 

Tuesday, July 24, 2018

मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए -2

A poem of Umesh chndra srivastava

देश प्रेम , मातृ प्रेम , सहोदरता बढ़े ,
ऐसा ही मुहीम चलाना चाहिए।
भक्ति-भाव , आस्था का पुंज बने वो ,
ऐसा ही मनुष्य बनाना चाहिए।

जगहित कार्य करे , स्वार्थ से परे ,
ढीली ढाली बात नहीं , नियम से चले।
बात-बात में उसकी शीरी वाणी हो ,
ऐसा ही मनुष्य बनाना चाहिए।

         मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए ,
          कोई कारखाना चलाना चाहिए।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chndra srivastava

Monday, July 23, 2018

मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए

A poem of Umesh chandra srivastava


मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए ,
कोई कारखाना चलाना चाहिए।
नट , बोल्ट , पेंच सब दुरुस्त हो जहाँ ,
बुद्धि 'औ' विवेक लगाना चाहिए।

जहां सदाचार , ईमान पाठ हो ,
सत्य , प्रेम दीपक जलाना चाहिए।
वहां पे मनुष्य जितने भी बने वो ,
सबमे  मिटाना चाहिए। (क्रमशः )





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Thursday, June 28, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -20

A poem of Umesh chandra srivastava


मनु श्रद्धा हों , चाहे जो भी ,
आकर्षण से खिचे रहे।
तभी तो सृष्टि का कुसुमित पल ,
सहसा फिर से शुरू हुआ।

याद मुझे है प्रकृति तुम्हारा,
मोह रहा विपरीति लिंग।
परबस , प्रतिक्षण अर्पण करने -
को आतुर तुम सहज रहे।

अरे! उर्बी तुमको वह पल ,
याद रहा होगा , हर्षित हूँ।
तेरे ही कपोल सुंदरता का ,
मैं मोहित तब से ही रहा।

न जाने कब से तुम उर्बी ,
तरुणी जैसी बनी हुई।
मैं बिहसा , टूटा रहता था ,
तब भी तुम समभाव रही।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, June 26, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -19

A poem of Umesh chandra srivastava


पर क्या उर्बी वह भोला तो ,
जीवन में पाना चाहता। 
शॉर्टकट में सबकुछ चाहिए ,
इसीलिए वह ठग जाता। 

उसमें नारी प्रेम है इतना ,
नारी के प्रति असीम लगाव। 
इसी के चलते निज भावों को  ,
नहीं संतुलित रख पता।

वह तो प्रकृति तुम्हारे जैसा ,
पल-पल हमे सताता है।
जल प्रपात हो , झंझा चाहे ,
सब तो मैं ही शती हूँ।

याद करो प्रकृति , प्रलय का ,
भीषण गहराया पल था।
सभी जीव-जंतु नष्ट हुए थे ,
तब भी मैं संतुलित रही।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, June 13, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -18

A poem of Umesh chandra srivastava


गर-वह प्रकृति तुम्हारे जैसा ,
निज जीवन व्यवहार करे।
तब तो दुःख की रजनी उसको ,
कभी नहीं आगोश में ले।

वह संतुलित नहीं रह पाता ,
चाहे जो भी कारण हो।
पल-पल में वह नयन दृगों से ,
बह्ताया रहता स्रोता।

उस अकिंचन पर दृण , करुणा ,
पर वह विचलित भी होता।
पल-पल में संतुलित भी होता ,
पल-पल में हँसता-रोता।

गर वह अपने निज भावों से ,
अपने को संतुलित करे।
उसके जैसा कोई प्राणी ,
जग में दूजा न होगा।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, June 10, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -17

A poem of Umesh Chandra Srivastava


उसके भाव सरल होते हैं ,
स्मृतियाँ भी समतल हैं।
कहाँ हवा में उड़ आता वह ,
भावों का अटखेलक वह।

उसे भाव में बहने दो सखि ,
वह भावों का कुशल चितेरक।
किस्सा-विस्सा बुनने दो बस ,
कहने दो 'औ' लिखने दो।

उसकी दृष्टि अनोखी अद्भुत ,
बहुत सी बातें कह-सुनता।
जो भी हम जाने 'औ' समझें ,
उससे पूर्व वह लिख देता।

सुंदरता की दृष्टि प्रबल है ,
सुंदरता की वह प्रतिमूर्ति।
क्यों न हो ऐसा वह प्यारे ,
वह हम दोनों की संतति है। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, June 8, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -16

A poem of Umesh  Chandra Srivastava



विश्लेषण करना हो , चाहो-
अलग-अलग सब कर लो भी।
मगर सत्य है हम दोनों ही ,
दोनों में समरूप रहे।

मैं उर्बी हूँ , तुम प्रकृति हो ,
मैं नारी , तुम पुरुष रहो।
तेरा मेरा मिलना होता ,
जगती को सुख देने को।

नाहक लोग प्रपंची होते ,
कहते-रहते है सुख-दुःख।
हम दोनों सहते यह सब हैं ,
पर कहते क्या , चुप रहते ?

सखे मनुज है दुर्बल प्राणी ,
जरा-जरा में हंस रोता।
जीवन की सारी संगतियाँ ,
कहाँ-कहाँ वह नहीं ढोता।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, June 6, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -15

A poem of Umesh chandra srivastava


उसको क्या-क्या बात कहूँ मैं ,
जिसने तेरा सृजन किया।
जीवन का अनमोल रहस्य तू ,
सदा-सदा तू तरुणी लगती।

बहुत हो गया मेरा वर्णन ,
तुमसे प्यारे ही हम हैं।
गर तुम रहे तभी तो-
मेरा जीवन-जीवन है।

तुमसे ही तो हरियाली है ,
तुमसे ही खिलना मेरा।
बिन तेरे हम कुछ भी नहीं हैं ,
तुमसे ही होना मेरा।

तेरा अर्पण , तेरा समर्पण  ,
जबसे हम तुम बने हुए।
मैं तुझमें हूँ , तू मुझमे है ,
प्यारे हम दो एक ही हैं।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव  -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, June 2, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -14

A poem of Umesh chandra srivastava 

तू वसुधा अनमोल रतन है ,
देवों का तू गर्वित क्षण। 
वार-वार सब कुछ तेरे में ,
तेरा स्वागत प्रतिपल प्रतिक्षण। 

स्नेहिल , पुष्पित , हर्षित हो ,
नित्य तुम्हारा रूप निखरता। 
अन्दर बाहर दोनों सुन्दर ,
क्या उपमा , सब उपमा विगलित। 

रोज तुम्हारा दर्शन-वर्शन ,
खिली-खिली मोहक लगती। 
पानी , आंधी , तूफां सहकर ,
सुखद सलोनी फिर भी लगती। 

नारी रूप बड़ा मोहक है ,
नर सब देख रसिक बस होते। 
टक-टक देखें , नख-सिख तब तक ,
जब टक दृष्टि नहीं थकती। 




उमेश चन्द्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, June 1, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -13


A Poem of Umesh chandra srivastava 


कौन पुरुष है , कौन है नारी ,
यह सब भाव जगत का भेद। 
पूरी संतति हम दोनों की ,
हम दोनों उत्सर्जक हैं। 

भाव तुम्हारा सुखद , सलोना ,
उर्बी तू ममता की छाँव। 
तेरे बिन जग लोग अधूरे ,
माता का वर्चस्व बड़ा। 

मात तुम्हीं हो इस जग भर की ,
मल , मूत्र सब कूड़ा करकट। 
हुए समेटे निज बाहों में ,
फिर भी है पुचकार वही। 

धन्य तुम्हारा मात समर्पण ,
जग भर का सब कुछ है अर्पण। 
फिर भी शब्द नहीं हैं तेरा ,
कैसे-कितना वर्णन कर दूं। 



उमेश चन्द्र श्रीवास्तव-
  A Poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 31, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -12


A Poem of Umesh chandra srivastava 

तुम प्रकृति , पुरुष स्वरूप हो ,
तुम जानते हो ‘बीज’ महत्व। 
बिना ‘बीज’ के निज वसुधा मैं ,
क्या कर लूंगी , सब जाने ?

नारी का अस्तित्व पुरुष से ,
पुरुष अधूरा है नारी बिन। 
जीवन के इस धुरी चक्र में ,
दोनों का सहयोग बड़ा है। 

जितने भी हैं जीव जगत में ,
जड़ , पदार्थ , हिम , बंजर भू।
हम दोनों की सभी प्रतीती ,
हम दोनों समभाव रहें। 

हम दोनों में झगड़ भी होता ,
नयनों से बहता स्रोता। 
पर हम सम्भल तुरंत ही जाते ,
क्योंकि हम दो एक ही हैं।   (धारावाहिक , आगे कल )


-उमेश चन्द्र श्रीवास्तव
 A Poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, May 26, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -11


A poem of Umesh chandra srivastava 

तू ही सदा उन्हें देती है ,
अमृत रस ‘औ’खान-पान। 
तेरे आश्रित जीव जगत हैं ,
तू ही सबकी अन्नपूर्णा। 

नाहक मुझे भाव तुम देते ,
प्रकृति तुम्हारा भव मंगल। 
तुम बिन मैं तो सदा अधूरी ,
तुम मेरे सरताज रहो। 

याद रहा है उर्बी तेरा ,
वह नर्तन , प्रत्यावर्तन। 
जलामग्न सब भू , सृष्टि थी ,
तूने दिया पुनः नर तन। 

माना सत्य कहा है तुमने ,
पर उसमें सहयोग तेरा। 
बिन तेरे सहयोग प्रकृति , मैं ,
कुछ भी नहीं ,अस्तित्व नहीं। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...