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Saturday, March 25, 2017

नदियों में छप्पक-छप्प-छइया

poem by Uesh chandra srivastava 

नदियों में छप्पक-छप्प-छइया ,
माँ लेती है शिशु की बलइया। 
शिशु गोदी में-
जल में 'कर' कर ,
किलकारी मारे, छप-छप खेले। 
देख दृश्य यह ,
माँ अंतर्मन -पिता करे -
अट्टहास सुखइया। 
भीतर से माँ का स्वर फूटा ,
धन्य हुई  मैं, मातृ सुखों से ,
इस जग में मैं ,
धन्य हुई हूँ। 
मातृ सुखों से अभिसिंचित हो ,
सब बच्चों की लेती बलइया। 
     नदियों में छप्पक-छप्प-छइया।  

पिता छत्र है ,माँ है भूमि ,
भूमि बिन सब कहाँ खड़े हों। 
छत्र बिना भी जग है अधूरा ,
दोनों से परिपूर्ण बने यह ,
जग की महिमा, जगदीश्वर को ,
नमन करे हम ,जाएँ तलइया। 
     नदियों में छप्पक-छप्प-छइया। 

रक्तबीज शक्ति की महिमा ,
शिशु होता है माँ की गरिमा। 
उससे ही सम्पूर्ण है नारी ,
वरना सुख का छोर कहाँ है। 
माँ कहती-उसकी ता-तइया ,
सुन के मन ,सुख पाता भइया। 
जग की पूरी सृष्टि विधा में ,
यह पल तो अनमोल सुखइया। 
     नदियों में छप्पक-छप्प-छइया। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Uesh chandra srivastava 

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