month vise

Friday, March 31, 2017

ज़िन्दगी की डोर है

poem by Umesh chandra srivastava

ज़िन्दगी की डोर है ,
पतवार-जो भी है यहाँ।
सब हमारे ,
भाव का प्रतिरूप है।
उस नियंता पर रहें ,
कितना बताओ ,
कब तलक !
उसने हमको जन्म देकर ,
काम अपना कर दिया।
अब हमारा फर्ज है ,
हम भाव में-ऐसा बरें ,
सब जगत के तार को ,
झकझोर कर ,आगे बढ़े।
सब सहज हो ,काम अपना ,
कुछ निर्थक न रहे।
हम मनुज हैं ,
मनुज सा व्यवहार ,
आपस में करें।










उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, March 30, 2017

मैं राम हूँ

poem by Umesh chandra srivastava 

मैं राम हूँ ,
जो रमा हुआ है सब में। 
मैं वही राम हूँ ,
उसी का मूर्तकार स्वरूप। 
जो जगत में है विख्यात ,
दशरथ सुत के रूप में। 
कौशल्या की कोख से ,
अवतरित-मैं वही राम हूँ। 
इस जग में ,
मेरा कर्म क्षेत्र क्या रहा ?
बताने की जरूरत नहीं। 
बस दुःख इतना है कि ,
लोग मेरे चरित्र गाते हैं ,
सुनाते हैं। 
उससे लोगों को रिझाते हैं। 
पर अमल में नहीं लाते। 
अमल में लाएं तो ,
वास्तव में-राम राज्य आएगा !
लोगों को लुभायेगा ,
 हर्षाएगा  , और -
प्रेम की परस्परता बढ़ाएगा। 
पर क्या करूं ?
मैं आज भी रमा हुआ हूँ ,
पर लोग नहीं समझ पाते। 
उनके भीतर जो तीव्रतर है। 
जिसे वह  किसी प्रेरित भाव से ,
कुचल देते हैं। 
मैं वही तीव्रतर भाव हूँ। 
मेरे उस भाव को ,
बाहर निकाल ,
उसमें रमण करना ,
सुखद होगा। 
पर क्या करूँ ?
लोगों को पता होना चाहिए ,
जो शक्ति का संचार है। 
जो शक्ति पुंज है। 
 वह वही तीव्रतर भाव है ,
जिसे लोग भीतर ही भीतर 
दबा देते हैं। 
उस भाव का संचरण जरूरी है। 
बिना उसके कुछ नहीं। 
अभिलाषाओं के समुद्र पर ,
बैठा जीव। 
कब समझेगा मुझे !
कब रमें हुए भाव को ,
मनन ,चिंतन कर ,
व्यवहार में लाएगा। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Wednesday, March 29, 2017

मैं अयोध्या हूँ - 3

poem by Umesh chandra srivastava
मैं अयोध्या हूँ।
तुलसी बाबा ने मंडित किया मुझे।
                     
                         (3)

मेरे अस्तित्व को स्वीकारा ,
पर न जाने क्यों ?
इधर मुझे मथ रहा ,
मेरा ही अस्तित्व !
न जाने कितने लोगों ने ,
किये प्राण न्योछावर।
 न जाने किन वजहों से ,
राम को लेकर ,
उनके जन्मभूमि में ,
उनको प्रतिष्ठित करने को ,
उनका मंदिर बनवाने के लिए ,
उनको संसार में प्रतिष्ठा ,
दिलाने के लिए !
अब देखना है !
भविष्य की  कोख में ,
मेरा और-
मेरे इस अयोध्या का ,
क्या होता है ?
मंदिर तो बनना है।
मस्जिद भी बनेगा।
विमर्श से ,फैसले से ,
यह भविष्य ही तय करेगा।
पर ,मैं पीड़ित हूँ ,
उस माँ की तरह ,
जो प्रसव बेला ,
करीब आ जाने पर ,
छटपटाती है ,
उत्साहित रहती है ,
अपनी कोख में पल रहे ,
बच्चे को लेकर।
कि आखिर कब वह ,
देख पायेगा-इस लोक को ,
कब वह समझ पायेगा ,
इस  लोक के लोगों को !
बस यही छटपटाहट है ,
 देखिये क्या होता है ?
मैं तो अयोध्या हूँ।
हूँ और रहूँगा।
बस इसी सोच में हूँ ,
कि सब शांतिमय हो।
बस शांति से हो।
क्योंकि ,राम ने -
रावण का वध किया ,
शांति स्थापित करने के लिए।
मानवता का विस्तार करने के लिए।
आज भी लोग यही करें ,
तो मुझ अयोध्या को ,
लगेगा अच्छा।
भायेगा लोक की महत्ता ,
और फिर से ,
मैं संजोया जाऊँगा।
क्योंकि मैं तो अयोध्या हूँ।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, March 27, 2017

मैं अयोध्या हूँ - 2

poem by Umesh chandra srivastava
मैं अयोध्या हूँ ,
तुलसी बाबा ने मण्डित किया मुझे।

                 (2)

मुझे लगता है ,
कि लोग बेवजह ,
मुझे और मेरे नाम को ,
मथ रहे हैं।
राम हुए थे ,
जन्म भूमि यही है ,
तो राम ,तो राममय हैं।
कहीं भी ,कभी भी ,
उन्हें बसाया , रमाया ,
और पूजा जा सकता है।
वही हाल मस्जिद का भी है ,
वह भी मुस्लिम सम्प्रदाय में ,
रचा बसा है।
कहीं भी ,कभी भी ,
उसको भी रचाया, बनाया ,
और बसाया जा सकता है।
पर फिजूल में लोग ,
रगड़ रहे ,झगड़ रहे !
क्या हासिल होगा ?
मंदिर,मस्जिद -चाहे जहाँ हो ,
उसके प्रति निष्ठा ,
और विश्वाश होना जरूरी है।
लेकिन वह प्रेम कहाँ है ?
जो दोनों सम्प्रदाय की नियति है।
वह शांति कहाँ है ?
जो दोनों संप्रदाय की प्रतीती है।
मैं बड़े असमंजस में हूँ !
क्या करूं ,मैं तो अयोध्या हूँ ,
राम के अस्तित्व का गवाह !
वास्तव में राम को ,
प्रतिष्ठित किया बाल्मीकी जी ने।
न जाने कितनी भाषाओँ में ,
कितने धर्म-दर्शन में ,
राम को केंद्र में रख कर ,
राम कथा-कहानी ,
गायी गयी।
लगभग सबने ,
राम की जन्मभूमि ,
अयोध्या ही बतायी । 

शेष कल......





उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, March 26, 2017

मैं अयोध्या हूँ - 1

poem by Umesh chandra srivastava

मैं अयोध्या हूँ ,
तुलसी बाबा ने मंडित किया मुझे।
राम अवतरित हुए ,
मेरे ही प्रांगण में।
पर न जाने क्यों ?
सदियों बाद-जन-मन का अनुराग ,
मेरे प्रति छलछलाया।
अच्छा लगता है ,
जब लोग मुझे ,
राम जन्म भूमि का,
असर वाला स्थान मानते हैं।
पर क्या करूं ,मैं तो अमूर्त हूँ ?
निष्प्राण हूँ।
जन-जीवन का साक्ष्य हूँ।
समय के साथ-सदैव रहता हूँ ,
मेरा अपना अस्तित्व कहाँ है ?
मैं लोगों के माध्यम से ही ,
अपनी जीवन्तता का ,
अनुभव करता हूँ।
पर मुझे याद है ,
राम जन्म भूमि पर ,
बाबरी मस्जिद भी बनी थी ,
तुलसी बाबा उस दुआर पर रहे ,
जहाँ दोनों सम्प्रदाय की ,
आस्था का अटूट संगम है।
पर पता नहीं क्यों ?
पिछले दो -चार दशकों से ,
मैं मथ रहा हूँ।
शेष कल... 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava  

Saturday, March 25, 2017

नदियों में छप्पक-छप्प-छइया

poem by Uesh chandra srivastava 

नदियों में छप्पक-छप्प-छइया ,
माँ लेती है शिशु की बलइया। 
शिशु गोदी में-
जल में 'कर' कर ,
किलकारी मारे, छप-छप खेले। 
देख दृश्य यह ,
माँ अंतर्मन -पिता करे -
अट्टहास सुखइया। 
भीतर से माँ का स्वर फूटा ,
धन्य हुई  मैं, मातृ सुखों से ,
इस जग में मैं ,
धन्य हुई हूँ। 
मातृ सुखों से अभिसिंचित हो ,
सब बच्चों की लेती बलइया। 
     नदियों में छप्पक-छप्प-छइया।  

पिता छत्र है ,माँ है भूमि ,
भूमि बिन सब कहाँ खड़े हों। 
छत्र बिना भी जग है अधूरा ,
दोनों से परिपूर्ण बने यह ,
जग की महिमा, जगदीश्वर को ,
नमन करे हम ,जाएँ तलइया। 
     नदियों में छप्पक-छप्प-छइया। 

रक्तबीज शक्ति की महिमा ,
शिशु होता है माँ की गरिमा। 
उससे ही सम्पूर्ण है नारी ,
वरना सुख का छोर कहाँ है। 
माँ कहती-उसकी ता-तइया ,
सुन के मन ,सुख पाता भइया। 
जग की पूरी सृष्टि विधा में ,
यह पल तो अनमोल सुखइया। 
     नदियों में छप्पक-छप्प-छइया। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Uesh chandra srivastava 

Friday, March 24, 2017

राजनीति और धर्म का कैसा

poem by Umesh chandra srivastava    
 
                              (1)
राजनीति और धर्म का कैसा, रंग चढ़ा है ड्योढ़ी पर।
धर्म धुरंधर राजनीति में, कैसे आये ट्योढी पर।
उधर देख लो धर्म चितेरक़, क्या-क्या कहते यहाँ-वहां ?
मगर बदलना चाह रहे हैं, राजनीति को पौड़ी पर।

                                     (2) 
कौन उन्हें अब यह बतलाये ,दो नावों पर पांव कहाँ ?
जहाँ-जहां पर धर्म मुलम्मा ,राजनीति है वहां कहाँ ?
पर कलयुग आया है भईया ,गड्ड-मड्ड है चारों ओर।
धर्म धुरंधर भाग रहे हैं, राजनीति है यहां-वहां ?

                                 (3)
कहने को योगी ने साधा ,साध्य-साधना जीवन में।
लकुटी लेकर निकल पड़ा वह ,दिव्य दृष्टि की खोजों में।
पर भ्रमवश वह राजनीति के, चौराहे पर ठिठक गया।
अब बतलाओ मेल कहाँ है ,धर्म धुरंधर हैं रण में।

                                (4)
कहने को वह भोग-वोग को ,त्याग के आये धर्मों में।
पर बतलाओ यही था करना, तो घर-बार को छोड़ा क्यों ?
अगर थी चाहत राजभोग की ,धर्मयोग अपनाया क्यों ?
कैसे सुधरे जगत हमारा ,धर्म धुरंधर कुछ सोचो।



 उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, March 23, 2017

मन पंछी उड़-उड़ जाता है

poem by Umesh chandra srivastava

मन पंछी उड़-उड़ जाता है ,
कैसे उसे सम्हालूँ मैं।
भोर पहर के उच्चाटन को,
कैसे कहाँ निहारूँ मैं।

सूदिन बेल के यह प्रभात था ,
मन को बहुत लुभाता था।
रात की बातें कैसे बताऊं ,
भोर पहर मुस्काता था।

अनबोलों के मुख भी खुलते ,
कहते कैसे रहते हो।
क्या बतलाऊँ मन सावन में ,
क्या कुछ बात बताऊँ मैं ?




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, March 22, 2017

नव नूतन की रह पकड़ना

poem by Umesh chandra srivastava 

नव नूतन की रह पकड़ना ,इतना आसान नहीं होता। 
जब दो हित भावों से जुड़ता ,उसका हल आसान कहाँ। 
राम हुए थे त्रेता युग में ,पर मुगलों का राज्य रहा। 
क्यों कहते हो स्वर्ण युग था ,अकबर काल महान रहा। 
दो संस्कृत की अमर बेल को ,राजनीती का जामा क्यों ?
पत्थर भी तराश रहे हैं ,जकड़न में क्यों उनके हैं ?
बात समझ से-सीधी इतनी ,आस्था का जो सेतु रहा। 
वह भी कायम रहे सदा ही ,यह भी बात सुलझ जाए। 
नीयत की बस लगी कसौटी , राम-रहीम तो अपने हैं। 
इनको बाँट-खाट क्यों बिछते ,नीयत को बस साफ़ करो। 
बुद्धिवाद की प्रबल चेतना , श्रद्धा में तब्दील करो। 
मत रगड़ो ,झगड़ों को तुम अब ,केवल नीयत साफ़ करो। 
दोनों गुट का ध्रुवीकरण न हो ,अब तो समस्या , साफ़ करो। 
संवादों से हल सब होगा ,बस नीयत को साफ करो। 
वरना उलझो इस झगड़े में ,आस्था ,धर्म बदनाम करो। 
राजनीति के कुशल चितेरक ,इसमें क्या कर सकते हैं ?
वह तो रोटी सेक ,ध्रुवीकण अपना रंग जमाएंगे। 
वह फरमाएंगे ऐसा हो ,जैसा इतिहासों में है। 
ऐसे मसलों पर चिंतन कर ,स्वविवेक इन्साफ करो। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, March 21, 2017

घड़ा बदलने से क्या होगा ?

poem by Umesh chandra srivastava 

              (1)
घड़ा बदलने से क्या होगा ?
पानी वही पुराना है !
गर पानी का शोधन करके ,
पवित्र जलों का हो मिश्रण। 
तब तो बात बनेगी, यारों। 
वरना चलने दो , वैसा ही-
जैसा चलता , रहा अब तक !

                (2)
बात पते की कहना अच्छा ,
बड़ा सुहाना लगता है। 
मंत्रों से शुद्धि कर रहना ,
बड़ा सुहाना लाता है। 
मगर दिखावा से क्या होगा ?
कुछ तो नया करो बंधू !
साधु-सन्त की बेल पुरानी ,
संस्कार की नई रवानी ,
सुध-बुध , याद पुरानी अपनी ,
कितना-कितना गुच्छा है। 
पर गुच्छे में नव नूतन के -
फूल नए कुछ खिल जाएँ !
तब तो बात समझ कुछ आये ,
वरना करो प्रलाप , 
दिखाओ अच्छा-अच्छा ,
क्या मतलब है , क्या मतलब है ?




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, March 20, 2017

उसको-इसको प्यार सभी को

poem by Umesh chandra srivastava 

उसको-इसको प्यार सभी को ,
प्यारे जग के लोग करें। 
पर बतलाओ कौन सा जन है ,
जो इस जग का अधर धरे। 

अधर प्रेम का प्रस्फुटन है ,
यही चलता ,दृष्टि दे। 
अधरों का अधरामृत कितना ,
नर-तन को खूब भाता है। 

देखो अधर बिंदु पर कान्हा ,
मुरली धर कर टेर रहे। 
और उसी टेरो में राधा ,
सुध-बुध खोकर झूम रही। 

अधरों का बांकापन ऐसा ,
बड़े-बड़े आकर्षित हों। 
झूमें , रमें हैं इन अधरों पे ,
देखो शक्ति मुस्काती। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, March 17, 2017

संसार में सुन्दर नर-तन है

poem by Umesh chandra srivastava 

संसार में सुन्दर नर-तन है ,
नर-तन की सुन्दर अनुभूति। 
इस अनुभूति से उपजे सब ,
चाहे देवों का चरणामृत। 

नर में ही विचारों का गुच्छा ,
अभिव्यक्ति की-अविरल क्षमता। 
जो चाहे सोचे नर-तन यह ,
अभिव्यक्ति में संयम करके,
वह व्यक्त करे जो जन हित हो ,
उसमें ही अमरता मिलती है ,
कहने को शरीर ही मरता है। 

पर कर्म सदैव अमर है यहाँ ,
इसके खातिर नर जीता है। 
बस लोभ-मोह को गर त्यागे ,
इसके चलते नर-विरक्ति को ,
पाल पास व्यापक करता। 
गर इससे छुटकारा हो तो ,
नर देव समान स्वयं होता। 

देवों का यही विधान यहाँ ,
वह कर्म भोग में लिप्त कहाँ ?
जो भी इसमें गर पड़ जाता ,
तो दण्ड का भागी वह होता। 

जीवन तो बहता स्रोता है ,
बस शुद्ध जलों का मंचन कर। 
खुद सब मिलजायेगा नर-तन ,
यह लोक-परलोक की महिमा है। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, March 16, 2017

पूर्ण सत्य कोहराम मचाता

poem by Umehs chandra srivastava 

पूर्ण सत्य कोहराम मचाता ,
अर्धसत्य खिसियाता है। 
जीवन में जीना हो यारों ,
कोई सत्य ना अपनाओ। 

केवल रक्खो बात समझ से ,
झूठ यहाँ पर चलता है। 
सत्य आवरण में ही खिलता ,
केवल पढो किताबों में। 

चाहे देखो कृष्ण चरित्र को ,
चाहे राम का सच देखो। 
इसी धुरी पर चले सभी हैं ,
गांधी बाबा अलग रहे। 

गांधी केवल यह कहते थे ,
राम-रहीम का दर्शन एक। 
सत्य रहो ,भाई-चारा हो ,
ईश्वर-अल्ला तेरे नाम। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
poem by Umehs chandra srivastava 

Wednesday, March 15, 2017

अब तो कविता हुई अकविता

poem by Umesh chandra srivastava 

अब तो कविता हुई अकविता ,
 तुकबंदी गढ़ते हैं लोग। 
बिम्ब बनाते तर्कमयी वह ,
उसमें ही सब बात कहें। 
अब देखो-अकविता कितनी ,
मोहक-सोहक होती है। 
उसने-उसका रूप बनाया ,
उसमें मढ़ा प्रतीक नया। 
देखो-'जूड़ा' हुई स्टेपनी ,
मुखड़ा चन्दा गढ़ा-गढ़ा। 
तुम्ही बताओ उस चन्दा में ,
दाग सदा एकाक रहता। 
क्या ऐसी स्त्री भी अब है ,
 दागमयी अवगुंठन में ?
उसका रूप सलोना कह कर ,
दागदार दृष्टि उकेरी। 
कहाँ रूपसी अब पहले सी ,
छल-प्रपंच से दूर रही। 
अब छलिया ही दृष्टि उभरती ,
नारी पुरुष सामान हुए !
तुम्ही बताओ ऐसा सम्भव ,
कभी नहीं हो सकता है !
नारी शिशु को गर्भ में रखती ,
पुरुष हमेशा उड़ता पंछी। 
नारी में ठहराव-विराम है ,
पुरुष कहाँ एक डाली पर !



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Tuesday, March 14, 2017

दिल,जिगर ,मोहब्बत सब नाम करता हूँ

poem by Umesh chandra srivastava

दिल,जिगर ,मोहब्बत सब नाम करता हूँ ,
तुमको प्रिये मैं झुक के सलाम करता हूँ।
तुम तो बुत नहीं ,हक़ीक़त हो जहाँ की ,
तुमको अदा से मैं यह पैगाम देता हूँ।
तुम तो रहो जहाँ भी ,मैं खुश हूँ यहाँ ,
हर रोज़ ,हर पहर ,तुम्हें याद करता हूँ।
मन में कुछ शरारत ,तेरी बात पर हुई ,
लेकिन खुदा कसम मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
वो बात थी मगर ,वो चन्द रोज़ ही रही ,
अब तो गिले को छोडो ,यह बयान करता हूँ।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, March 13, 2017

मिलते रहोगे ज़िन्दगी गुलज़ार रहेगी



poem by Umesh chandra srivastava

मिलते रहोगे ज़िन्दगी गुलज़ार रहेगी ,
उल्फत की हक़ीक़त से दो चार रहेगी।
वैसे तो गम बहुत हैं इस नूर जहाँ में ,
प्रेमों का समुन्दर तो बस एक जगह है।
कहते हैं उसे ताजमहल, प्रेम इबारत ,
बनवाया गया था उसे ,वह प्रेम निशानी।
जितने भी लोग प्रेम के हैं  प्रेम पुजारी ,
उन सब के अरमानों का यह ताजमहल है।
खुशबू है आज भी वहां ,सोंधी सी महक है ,
इशरत वहां मिलती है ,वह प्रेम का दर्पण।
बनवाया शहंशाह ने वह प्रेम निशानी ,
जितने भी वशर आज वहां आते जाते हैं।
सब ही तो वहां प्रेम का इज़हार पाते हैं ,
कुछ भी कसम नहीं है सब साफ-साफ है।
उल्फत की निशानी रही ,उल्फत ही रहेगी।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Sunday, March 12, 2017

नज़रों से होली खिली गयी

poem by Umesh chandra srivastava 

नज़रों से होली खिली गयी ,
नज़राना होली का दे दो। 
वह फूल कहाँ-होली मौसम ,
रंगों में बिखरा इधर-उधर। 
पंखुड़ियां फूलों की बिखरीं ,
कुछ लाल-वाल ,पीले-पीले। 
मलमल के नहलाया उसको ,
रंगत में रँगा ,बौराया मन। 
कुछ भंग चढ़ी ,कुछ अंग लड़ी ,
सब कुछ होली में सम्भव है। 
बस प्रेम की पिचकारी होली ,
होली में बबुआ-बबुनी हैं। 
उमरों का झोका भी होली ,
होली में सब रंग मिल जाते। 
अबीर गुलाल की यह होली ,
होली में दिल सब खिल जाते। 
होली में टोली रंगों की ,
जो पकड़-पकड़ रंग खुब डालें। 
होली की बाजीगरी यही ,
सब प्रेम प्यार से खिल जाते। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Saturday, March 11, 2017

फिर गाँवों का पोखरा पानी

poem by Umesh chandra srivastava

फिर गाँवों का पोखरा पानी ,
फिर गड़ही बिसात बढ़ाई।
होली के मौसम में बंधु ,
हरिया भौजी रंगी-रंगी।
उसका मुखड़ा अब चकोर है ,
चंदा घूमें गांव यहाँ।
पकड़ चकोरी को धर पटको ,
मल-मल के गुलाल यहां।
गाय के  गोबर से साने वो ,
माटी पोतें खड़े-खड़े।
बन्धु यह गाँवों की होली ,
इत-उत देखा यहाँ-वहां।
कजरी, होली, बैसाखी हो ,
सब रंग मिलता यहाँ-यहाँ।
गांव की होली रंगत ऐसी ,
बौराया मन दिखे यहाँ।
कोई सुरा के सुरूर में ,
कोई में रंग चढ़ा बहुत।
माझी काका खूब ललकारें ,
मत छोड़ो तुम भौजी को।
रंग डालो रंगत हो ऐसी ,
सारा बैर मिटा डालो।
यही सुहाना मैसेज होली ,
प्रेम में बरसे रंग यहाँ।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, March 10, 2017

आज बरस होली का आया

poem by Umesh chandra srivastava 

आज बरस होली का आया ,
प्रीतम तुम बिन घर सूना। 
पापड़ ,चिप्स कहाँ बन पाया ,
सब कुछ लगा अधूरा सा। 

तुम रहते थे मन लगता था ,
आलू बोरे-बोरे आता। 
सुधियों का वह मंजर आलम ,
गया ,नहीं क्या आएगा ?

तुम बिन आंगन ,कोना सूना ,
सब कुछ तीतर-बितर सा है। 
कहाँ गए परदेसी निर्मोही ,
तुमने तो जग छोड़ दिया। 

कहाँ से लाऊं तुम जैसा मैं ,
जो घर, होली सँवारे। 
पौध-पौध में थिरकन तेरी ,
तेरी बगिया सुधारे। 

यह तो मोल नहीं मिलता है ,
प्रेम तो शाश्वत पौधा है। 
उसका तौल कहाँ इस जग में ,
तुम तो गए ,कहाँ अब हो ?





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, March 9, 2017

दो कवितायेँ

poem by Umesh chandra srivastava 

             (1)
दो पैरों वाला इंसान ,
बड़ा करामाती होता है! 
चंगुल में फंसे नहीं ,
कि निगलने की फ़िराक में रहता। 
क्योंकि उसका पेट बड़ा है ,
समुन्दर उसके आगे जीरो। 
पूरा का पूरा आदम जात ,
आदमी कहाँ है-वह ! 

             (2)
सपने को तुलसी बाबा ने ,
सत्य का जामा पहनाया।  
त्रिजटा के मुख से उनने -
सीता को यह समझाया। 
अब कहाँ-सच होते हैं सपने ,
देखिये-देश के कर्णधारों को। 
कितने सपनें दिखाते हैं !
पर हक़ीक़त क्या वो सच हो पाते ?
अब जुमलों का जमाना आया ,
उनने सुना-उनने सुनाया।
बाकी जन-मन के समक्ष ,
सब फुर्र ,सब फुर्र। 
सत्ता पाते ही-अपने में मस्त !
जनता मरे-खपे ,रहे त्रस्त !!
वह तो अपने में हैं अलमस्त !!!




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Wednesday, March 8, 2017

रूप की माधुरी तुम तो बैठी वहां

poem by Umesh chandra srivastava 

रूप की माधुरी तुम तो बैठी वहां ,
हम तो कविता रचायें भला किस लिए। 
मन है दर्पण तेरा ,स्वच्छ ही दीखता ,
उसमें छवि हम बसाएं भला किस लिए। 
रोज कहती हो तुम 'हम तुम्हारे लिए ',
अब यह मुखड़ा सुनाएँ तुम्हें किस लिए। 
माना संशय ज़रा मनु का जैसा हुआ ,
अब तो श्रद्धा जगाएं तुम्हारे लिए। 
तुम तो कहती सदा ,श्याम तुम हो मेरे ,
तुमको राधा बनायें भला किस लिए। 
वो पहर याद तुमको भी होगा ज़रूर ,
प्रेम रस में नहाएं भला किस लिए। 
प्रेम पींगों की हो ,फूल सेज बनें ,
आओ गुल कुछ खिलायें तुम्हारे लिए। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, March 7, 2017

तुम कृष्णा की राधा बन कर

poem by Umesh chandra srivastava

तुम कृष्णा की राधा बन कर ,
नाच रही हो छनन-छनन। 
मैं कृष्णा की बांसुरिया बन ,
तुम को देखूँ मगन-मगन। 
होली का त्यौहार है आया ,
आओ थोड़ा रंग-गुलाल। 
प्रेम भाव का सुन्दर मौसम ,
छोड़ मिले हम सभी मलाल। 
वह देखो नन्दन वन बिहंसा ,
ठुमक रहा है पंचम ताल। 
आज तुम्हारी सुधि आयी है ,
कृष्णा तेरी होली कमाल। 
रंग में रंगते ऐसे-ऐसे ,
गोप गोपियाँ बहकी चाल। 
आंख का अंजन अधर लगा के  ,
देखो कैसे करती धमाल। 
वाह रे ! मोहन तेरी बंसी ,
रंग में रंगी सुनाये टेर। 
ओ बंसीघन पनघट वाले  ,
छप-छप खेलें होली मराल। 
होली के तुम असल होलारी ,
तुम बिन होली कहाँ मजाल। 
प्रेम रूप मन स्वच्छ तुम्हारा ,
जिसमें बसता गोकुल ताल । 
वाह रे ! बंसी वाले नटखट ,
मलो गुलाल सब होयें निहाल। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Monday, March 6, 2017

काश ! कविता के दो पैर होते

poem by Umesh chandra srivastava 

काश ! कविता के दो पैर होते ,
और वह सड़क की धारा को, 
माप कर चल पाती। 
काश !  कविता के दो हाथ होते ,
जो सड़क पर अनियंत्रित वाहनों को ,
अपने हाथों से ढकेल पाती। 
काश ! कविता की दो ऑंखें होती ,
जो सड़क पर अनियंत्रित लोगों को ,
घूर सकती। 
काश ! कविता की नाशिका होती ,
जो सड़क की सड़ांध ,बदबुओं को ,
करीने से महसूस कर पाती। 
काश !कविता के पास होती ,
श्रवण शक्ति ,
जो सड़क की चिल्ल-पों सुन पाती। 
लेकिन क्या किया जाये ?
अब तो कविता-
बिन हाथ ,पैर ,आँख ,कान के हो गयी। 
जो मन चाहा ,लिख दिया। 
सन्दर्भ-व्याख्या-क्या पता ?
रजाई में दुबक कर लिख डाली ,
अँधेरे की कविता। 
नदी में डुबकी लगा ,
लिख डाली रोमानिया की सविता। 
कहाँ रहे अब वह बिम्ब , प्रतिमान ,
जो समाज को झकझोरे। 
कहाँ रहा वह अडिग स्वर ,
जो अडिग योद्धा सा खड़ा हो। 
सबकुछ गड्डम-गड्ड। 
लिख दिया कुछ हँसाने के लिए ,
भीड़ जुटाने के लिए। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, March 5, 2017

प्लेट सजाकर सभी दिया है

poem by Umesh chandra srivastava

प्लेट सजाकर सभी दिया है ,
जीव-जंतु का उत्सर्जक वह।
उसने ही यह जगत बनाया ,
माया ,ममता ,स्नेह सिखाया।
भावों का वह कुशल चितेरक ,
सब भावों का वह उत्प्रेरक।
भाव-भंगिमा सब उसकी है ,
हम सब केवल मोहरे उसके।
जैसा चाहे चाल चले वह ,
हम सब उस अनुसार चले यहं।
वह ही लोक धर्म का पालक ,
वह ही लोक धर्म का कारक।
हम सब तो निमित्त मात्र हैं ,
जैसे चाहा उसने नचाया।
कहाँ कर रहे फिर वह बातें ,
हमने जीवन में यह बनाया।
सब कुछ वही-वही करवाता ,
हम सब केवल उसकी माया।
उसकी दाया पर हम रहते ,
भोग,पुण्य और लाभ भी करते।
उसने जीवन चक्र धुरी पर ,
हमको ऐसा नाच नचाया।
फिर भी मोहवशी के चलते ,
हम करते-उसको दुःख देते।
नहीं हमें यह सब करना है ,
जीवन के पथ पर बढ़ाना है।
सत्य , अहिंसा डोर पकड़ कर ,
आगे-आगे नित बढ़ना है।




 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Saturday, March 4, 2017

तुम्हें देखता हूँ तो लगता है ऐसे

poem by Umesh chandra srivastava 

तुम्हें देखता हूँ तो लगता है ऐसे ,
कि पूरे जहाँ का सुकूँ मिल गया है। 
तुम्हारा वह चेहरा बड़ा ही सुकोमल ,
नज़र का वह बांकापन है मनोहर। 
तुम चलती तो लगता गगन हिल गया है ,
मचलती तो सारा भुवन हिल गया है। 
वो सागर की बातें ,वो लहरों का रुकना ,
तुम्हें देखकर वो हवाओं का झुकना। 
बड़ी ही मुक़द्दस जगह जहँ तुम मिलती ,
वो फूलों का खिलना, वो डाली का झुकना। 
बड़ी ही जतन से तुम्हें है तराशा ,
वो भगवान ही है, जो सबका है दाता। 
चलो फिर से फुरसत ,तुम्हें क्या बुलाएँ ?
तुम नाज़ुक कली हो तुम्हें क्या झुकाएं ?
ज़रा मोड़ पर ही तो टूटोगी ऐसे ,
कि जैसे गगन से सितारे गिरे हों। 
महक हो जरा तुम धरा को महकाओ ,
कुछ अपनी मधुर तुम मधुरिमा खिलाओ। 
सभी झूम जाएँ-वो गाएँ 'औ' नाचें  ,
तुम्हें देख कर ही ख़ुशी गीत गाएँ। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, March 3, 2017

फूल कांटे ज़िन्दगी में बहुत हैं मगर

poem by Umesh chandra srivastava

फूल कांटे ज़िन्दगी में बहुत हैं मगर ,
तुम रहो साथ जीवन सफर जायेगा।
वो जो बाहें फैलाये खड़े सामने ,
उनके मुखड़ों का दर्पण उतर जायेगा।
सामने कुछ कहें, पीठ पीछे मगर ,
रुसवा करते हैं जाने क्यों लोग यहाँ ?
तुम साहारा बनो, मैं साहारा बनूँ ,
रूप दर्पण में देखो निखर जायेगा।
ज़िन्दगी का सफर साथ में ही कटे ,
सारे दुःख का मुहूर्त निकल जाएगा।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Thursday, March 2, 2017

तीन मुक्तक

poem by Umesh chandra srivastava



                   (1)
कमल नयन सुरभित किरण प्रतिदिन होता प्रात।
जल-कल पर बिबबित हुआ प्रकृति का अनुपात।
जल ले कर कमली चली सुदृण बदन चितचोर।
आओ मिल सब देख ले इसका सुन्दर श्रोत।

                               (2)
आते ही मन भाव में अकुलाहट चुपचाप।
 धीरे-धीरे शब्द का बनता है परताप।
बिम्ब गढे क्या जाएंगे खुद ही कहेंगे बात।
ऐसे में तन बसुधा रचने लगा सुलाप।

                               (3)
हुआ मन उसे अब ह्रदय से लगा लें।
कुछ बहकी हुई वो- उसे पास ला लें।
जिगर की वो सारी ही बातों का गुच्छा।
वह फिर मुस्कुराई उसे निज बना लें।



                                                                                                                                 -उमेश चंद्र श्रीवास्तव
                                                                                                         poem by Umesh chandra srivastava 

Wednesday, March 1, 2017

प्यार का दीप

poem by Umesh chandra srivastava 

प्यार का दीप मन में जलाते चलो ,
ज़िन्दगी का सफर यूँ ही कट जायेगा। 
वो मुसीबत ,वो झगड़ा ,वो रगड़ा सनम ,
प्यार के आंच में सब पिघल जायेगा। 
यह धरा है सुहानी, वो नीला गगन ,
वो चमकते सितारे, वो चंदा सनम। 
ताप सूरज की कम हो , हवा भी चले ,
हम सुहाने सफर में यूँ ही घुल मिले। 
आओ बैठे वो देखें-नज़ारा सनम ,
वो कहानी 'औ' किस्से मुखातिब हुए। 
रोज ढल ही गया ,कल ढली बात क्या ,
अब तो आगे के कल का करें फैसला। 
प्यार ही है जगत 'औ' जगत प्यार है ,
रौशनी में इसी के नाहाते चलो। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...