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Monday, January 9, 2017

अग्निशिखा की तरुणाई

सुध-बुध रात बहुत थी आयी ,
भोर भये सब पंख उड़े। 
निशा पहर की सौगातों में ,
मुखड़ा खिला-खिला देखा। 
भोर भयी तो सब कुछ बिखरा ,
सारी रात रही तनहाई । 
तुम भी तो निर्मोही ऐसे ,
दिन में फुर्र ,रात को आते। 
दिवस पहर में व्यस्त रहे हम ,
रात में रहती तनहाई । 
तनहा जीवन ,तनहा हम हैं ,
तुमने तो कुछ समझा नहीं। 
सोचा गर होता भी थोड़ा ,
तो तुम यूं कैसे जाते?
तुम तो सजन बड़े बेदर्दी ,
तन को व्याकुल छोड़ गए। 
बोलो कब-तक सुध लोगे तुम ,
अब तो शीतमयी मौसम। 
आओ जल्दी कुछ तो कम हो ,
अग्निशिखा की तरुणाई। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

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