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Friday, January 20, 2017

कुछ समझौते करने पड़ते-2

सत्य आवरण खोल न पाया ,
यह सब है इस युग की माया। 
धर्म धुरंधर ,धर्म प्रदर्शक ,
अपनी वाणी खोल ,हैं बढ़ते। 

उसपर क्या बीती क्या जाने ,
वह तो अपने में खुश होकर। 
हुंकारों की ज्योति गढ़ेंगे ,
अगला मर जाये या कुछ भी ,
उनको फ़िक्र कहाँ है इसकी। 

माना गलत हुई कुछ बातें ,
पर यह मौखिकता के बल पर। 
लेकिन वह भी-समझें कुछ तो ,
मौखिक कौल दिला डाला है। 

खैर ,नहीं अब कुछ भी कहना ,
समरथ को हम क्या कह सकते ?
गुण 'औ' दोष कहाँ परिपाटी ,
सब कुछ अब तो गड्ड मड्ड है। 




शेष कल..........
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

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