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Wednesday, November 30, 2016

उज्ज्वल धार जमुन धारा की

उज्ज्वल धार जमुन धारा की ,
नाविक नाव चलते हैं। 
हम सब बिहसे बैठ वहां पर -
जमुन ढंग अवलोकित कर ,
मन में तरह-तरह-भावों को, 
जुगती वासंती रचते। 
तभी तटों के तल ढलान से ,
एक युवक-युवती निकले ,
अलसायी आँखों में समतल  ,
प्रेम ,ख़ुशी के रस झलमल ,
लगता दोनों-इस प्रकृति के ,
खुमारी से मिले ,सम्भले। 
वक्त समय की हरकत पढ़ के ,
थोड़े में ही निपट गए। 
अंतस का संचित रस कुछ तो ,
दोनों ने भोगे ,सोखे। 
अधरावली पे चटक मनोहर ,
दन्त गड़े पन उभर रहे। 
रक्तिम कुछ-कुछ अधर पुटों में ,
लालिम हलकी छिटकी थी। 
सब तो नहीं-मगर कुछ परखी ,
बिम्ब देख ,यह समझ गए। 
जीवन उमरित कोलाहल में ,
सिमटे वे ,विलग भये। 
अब तो प्रेम रहा है दैहिक ,
अब वह प्रेम कहाँ दिखता।  


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




Tuesday, November 29, 2016

राम राज्य का स्वप्न दिखाना

राम राज्य का स्वप्न दिखाना ,
बच्चों वाली बात नही।
जनता को यूँ ही बहलाना ,
बच्चों वाली बात नहीं।
रोज-रोज निर्देश सुनाना ,
बच्चों वाली बात नहीं।
वादा किया था क्या-क्या तुमने ?
उससे मुकरे,थोप यह देना ,
जनता को यूँ ही फुसलाना ,
बच्चों वाली बात नहीं।
पचास दिनों में 'वो राज्य' को लाना ,
बच्चों वाली बात नहीं।
हसी-मजाक,तंज यूँ कसना ,
अपने को ही 'पाक' बताना,
दूजे को 'वो है' ठहराना ,
बच्चों वाली बात नहीं।
 देश समाज को झटके देना ,
सबको यूँ लाइन लगवाना ,
बच्चों वाली बात नहीं।
यूँ ही 'कल्प-लोक' में जीना,
डींग मार कर ,आत्म प्रशंसा ,
बच्चों वाली बात नहीं।
अंत में बुद्धू बन के लौटना ,
बच्चों वाली बात नहीं।



  

Monday, November 28, 2016

नर ,मन को पढ़ के चलो आगे

नर ,मन को पढ़ के चलो आगे ,
नर ,मन ही सब कुछ करता है।
आगा-पीछा , दायां-बायां ,
सब सोच समझ कर कहता है।
मन सदा-सदा अच्छा कहता ,
दानव जो इसके भीतर है ,
वह ही भरमाता रहता है।
जब लाग-लपेट में तुम आये ,
बस काम गलत करवा जाता।
मन सच्चा है ,मन बच्चा है ,
पुचकारो,उसे दुलारो खुब ,
संयत करके निज भव मद को ,
मन में तौलो, मन में खौलो,
तब बड़ी सावधानी से भाई,
मन के विचार को आने दो।
जो वह कहता-वह सभी करो ,
नाहक अलसायी आँखों में ,
बेमतलब ,बेतुक मत उलझो।
मन दृष्टि रहा ,मन वृष्टि रहा ,
मन के भीतर के भावों को ,
तन भी माने ,जन भी माने ,
बस काम वही करना नर तन ,
मन ही तो सलोना सच्चा है।
मन बच्चा है ,मन बच्चा है।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव-





Sunday, November 27, 2016

यह अँधेरा ,दृष्टियों का-4

     यह अँधेरा ,दृष्टियों का ,
     दृष्टिमय अंधे बने हम।

बन्धु बाजी है उसी की ,
वह बना बाजीगर यहाँ।
वह ही जीते ,वह ही रीते ,
हम महज एक पात्र हैं।
सिलवटें बिस्तर की बन कर ,
कब तलक हम मौन हैं ?
युग जो आया-देखते हम,
बन्द होते काम को।
पर नहीं टस से मस है ,
वह बना अविराम है।
देखते हैं-दृष्टि उसकी ,
कुछ बहुत ,कुछ ठीक है।
पर मीमांसक जानते हैं ,
रास्ता उस डोर की।
वह प्रमाणित कह रहे हैं-
बात तो कुछ असमझ।
देखना है-दृष्टि उसकी ,
है कहाँ ,कैसे करेगा।
समय के ही हाट में ,
सब मौन हैं।
देखना है -कौन सी,
बाजीगरी वह कर रहा।
अब बताएगा समय ही ,
बात उसकी क्या रही ?
अब सिखाएगा-समय ही ,
काम कितना ठीक है।
देखना है जोर कितना ,
बात में , क्या दम है उसके ?


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-  



Thursday, November 24, 2016

यह अँधेरा दृष्टियों का -3

        यह अँधेरा दृष्टियों का ,
        दृष्टिमय अंधे बने हम।

दण्ड देना ,फंड देना ,
कार्य का एक माप है।
क्या सभी-सब माप पर ,
उसको भरोसा अब नहीं?
क्या वही-एक मात्र चिंतक ?
बाकी सब बेकार हैं।
इस अकेले पन में यारों ,
कौन उसके साथ है।
क्या कहें क्या न कहें ?
उसने ऐसे आवरण में ,
डाल सब को मथ दिया।
चाह करके भी सभी ,
बात एक ही कर रहे।
काम अच्छा, पर, परंतु ,
लेकिनो में झोल है।
बस इसी एक शब्द आगे ,
सब चुप ,खामोश हैं।
यारों लगता-शब्द का -
कोई चितेरक़ आ गया।
जो हमारे रक्त को ,
उबाल से ठहरा गया।
हमे जो भी कह रहा वह ,
कर रहे चुप-चाप हम ?
वह बताता-वह सुनाता ,
जैसे कोई देव हो।
पर हमारे धर्म में भी ,
देवता को बोलते।
क्या किया ,कैसे किया है ,
हम उसे भी हैं खोलते ?
पर वहां-हम कह रहे क्या ?
यह समझ की बात है।
उसके मीमांसक हमें तो,
जो कहा ,जो भी लिखा है ,
टोकते 'औ' खोलते।
वह बताते-यह सही है ,
वह नहीं, लगता सही।
सप्रमाणित तथ्य देकर ,
वह हमें सब बोलते।
पर यहाँ-हम क्या कहें ?
किससे कहें ,सब मौन हैं।
वह बताएगा-हमे अब ,
कौन हो ,तुम कौन हो !             (शेष कल )





उमेश चंद्र श्रीवास्तव-




Tuesday, November 22, 2016

यह अँधेरा , दृष्टियों का-2

     यह अँधेरा , दृष्टियों का,
     दृष्टिमय अंधे बने हम। 

काट चुटकी-देश हित में ,
आहूत कर सब ,सब सभी। 
वह बताएगा की कितना ,
सांस लेना है तुम्हे। 
वह सिखाएगा की कितना ,
दूर चलना है तुम्हें। 
यारों वह तो ,
कल्पना में जी रहा। 
और हमको सी रहा। 
माना यारों लोग कुछ हैं ,
जिनका निज हित मान है। 
पर उन्हीं -कुछ लोग चलते ,
हम पिसें-क्या धर्म है?
कर्म से बनता है इंसा ,
कर्म ही सब कुछ यहाँ। 
फिर बताओ ,दण्ड कैसा ,
बिन किये हम भुगतते। 
सरफ़रोशी  तमन्ना ,
तुम बताओ,सब में है। 
पर सिखाता वो हमे है ,
देश प्रेमी तुम बनो। 
भावना की तूलिका से-
भाव को वह बांधकर ,
क्या करेगा -पता तो हो ,
हम भी तो जनतंत्र हैं ?  (शेष कल )   

उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 





Monday, November 21, 2016

यह अँधेरा ,दृष्टियों का

यह अँधेरा ,दृष्टियों का ,
दृष्टिमय अंधे बने हम। 
कान से हम सुन रहे हैं ,
आंख से हम देखते। 
पर-पता न कौन सा भय ,
सुन-देख नहीं बोलते। 
यह समय है-वह समय है ,
पर बड़ी है बात-जो ,
समय पर दृष्टि रखकर। 
गर रहे -गर चुप अगर ,
समय जायेगा,लगेगा। 
बोल सकते ,हम चुप रहे?
वह अकेला या कई एक ,
बन्दिशों में जकड़ते। 
किस दिशा में-जा रहे हम। 
बात किस आदर्श की ,
जिसको ओढ़े आ गए हम ,
बात क्यों नहीं-उस तंत्र की। 
चोर बनकर जी रहे हम ,
वह सफाई ले रहा। 
पर नहीं देता सफाई ,
अपनी'औ'निज कुनबे की। 
मौन साधक बनके बैठा ,
जैसे कोई सन्त हो। 
क्या नहीं कुछ भी किया है ?
उसने अपनी राह में। 
एक झीना सा नहीं है ,
आवरण तो ठोस है। 
भीतरों से झांक सकता ,
हम नहीं देखें-उसे। 
युग निर्माता-बन प्रदर्शक ,
कौन सा वह खेलकर -
है नचाता 'औ' सताता ,
मूक बधिर तन्त्र को। 
चाह कर भी सत्य कहना ,
अब हुआ दुशवार है। 
समझ लो-जो बन सचेतक ,
कपट से क्या दूर है ?
बन्धु, भावों का उकेरक ,
भावना से खेलता। 
क्या नहीं है सत्य प्यारे ?
युग प्रदर्शक ,युगदृष्टा -
व्यंग करते हैं कभी ?
पर निहारो-तंज में ,
उसकी कला है अद्वितिय ! (शेष कल )

उमेश चंद्र श्रीवास्तव 








Sunday, November 20, 2016

हमे चाहिये कुछ नहीं तुमसे

हमे चाहिये कुछ नहीं तुमसे ,
तुम जो चाहो कहो, करो। 
हम सब बने निरीह तभी तक ,
जब तक सब्र की सीमा होगी। 

सब्र जो टूटा हम जन-मन का ,
तब तुम झेल नहीं पाओगे। 
दुनियावी के चक्र चला कर ,
किसका हित तुम साध रहे हो। 

मूक बने हम दर्शक कब तक ,
आखिर अंत यहीं आना है। 
माना सत्य आवरण अच्छा ,
जो कहता है निज हित दर्शन।

जरा चलो मैदान में आओ ,
कैसे क्या-क्या जग में होता। 
पकड़ के कुर्सी ऐंठ रहे हो ,
कैसे आये, खर्चा कर के। 

पाक-साफ की ड्रामेबाजी ,
नही चलेगी ,बने प्रदर्शक। 
हल्ला बोलो ,सत्य बातओ ,
नीयत निज स्पष्ट करो। 

क्या तुम सब कुछ ठप्प कराके,
तब आओगे आँसू ढोने। 
जनता कितना साथ तुम्हारा ,
देगी तुमको पता चलेगा। 

बुद्ध-शुद्ध में बने हुंकारी ,
जनता में जो-जो है बोला। 
अब तो भाई सत्य बता दो ,
जनता को क्यों रगड़ रहे हो। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -






 

Saturday, November 19, 2016

अरे गिलहरी , निरी गिलहरी

अरे गिलहरी ,निरी गिलहरी ,तुम तो बनी प्रतीक यहां। 
वो तो बोल रहें हैं तुमको ,तेरे हित में-हितकारक। 
मगरमच्छ को पकड़ेंगे वो ,तेरे रक्षा के खातिर। 
इतना बड़ा खेल है खेला ,अब तू बनी प्रतिष्ठा सूचक। 
निरी गिलहरी-तुम ज्ञानी हो या ध्यानी हो ,न जानें । 
तेरे ऊपर वार जा रहे -मुक्तक पढ़ने वाले लोग। 
तुमको देखा है धरती पर ,दौड़ भाग के दाना चुनते। 
तू होशियार बहुत साधक है ,दाने खाने हेतु डोले। 
क्या विचार का पुंज है तुझमे ,ये क्या जाने,बस बोले।
तुझपर रपट लिखाना मुश्किल ,खूब पहचान है-उनने। 
तू सुन सकती ,डोल,बोल सकती ,तू -तेरी भाषा अटपट। 
कुछ ही जानकर हैं होते ,जो तेरी बोली पहचाने। 
इसी लिए वो बोल रहे हैं ,तेरी भाषा के दिग्दर्शक। 
हम क्या जाने वो पहचाने ,तेरी नियत चाल विचार ?
इसीलिए -तुझे लक्ष्य कर रहे ,तू छोटी -जब चाहे -तुझको। 
मगरमच्छ को पकड़ेंगे वो,घड़ियालों को माफ़ किया। 
देखो -कैसे पार करेंगे ,गिलहरी तू चुप सुन ले। 
वाद और विवाद में सारे ,टर-टर पीछ राग बोले।
पहला काम किया है उनने ,ऐसा कहते वही ही लोग। 
सुनो गिलहरी लाइन में हो , मगरमच्छ अब होंगे विलीन। 
कितना सुंदर महल अदृश्य ,अंधी गिलहरी,गूँगी गिलहरी। 
डरी और सहमी गिलहरी ,देख क्या-क्या तेरे लिए अब?
कहते हैं वो शब्दों के पुंज ,मगरमच्छ 'औ' गिलहरी। 
दोनों से वो मुक्त बनेंगे ,अब देखेंगे -ओ-गिलहरी। 
अपने को वो क्या कहते हैं ,निरी गिलहरी सुनले तू। 
अरे गिलहरी मत तू नाच ,माना बोल नही सकती तू। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




Friday, November 18, 2016

चर्चाएं तो प्रबल हो गयीं

चर्चाएं तो प्रबल हो गयीं,किसकी-किसकी बात करे। 
मोहजाल में फंसे परिंदे ,आसमान से भाग रहे। 
बातों में बतधरी कहाँ है ,सभी मुलायम बनते हैं। 
क्रोध,रोष 'औ' बल प्रयोग पर , जीवन का पथ धरते हैं। 
अरे उठो संयत बोलो तुम ,बहुत बड़ा तोरण आया। 
तोरण कैसे बना ,बढ़ा वह ,उसपर कोई बात नही। 
कहा,किया ,औ' पैतरबाजी ,तोरण की है प्रमुख कला। 
नैसर्गिक जीवन में यारों ,चर्चाओं का मोल कहाँ। 
दिया उन्हें अब पिस जाओ ,गेहूं में घुन की तरह। 
गेहूं पिसा प्रदर्शित होता ,घुन का तो अस्तित्व कहाँ। 
माना चर्चा में वह सब कुछ ,पर संयत का भाव कहाँ। 
मन के आवेगों के आगे , सच्चों का अस्तित्व कहाँ। 
बस वो बोले , हम भी बोले ,वह तो प्रबल चितेरक़ हैं। 
तुम नाहक चर्चा में काहे ,खपा रहे अपनी ऊर्जा। 
उनके पास तो हत्था-डोरी ,तेरे पास भला क्या है?
वह तो सत्य नहीं देखेंगे  ,पर वह सत्य सुनाएंगे। 
तुम बस चलो सत्य भूमि पर ,बस इतना बतलायेंगे। 
कसम-वसम उदहारण उनका ,यह तो बेतुक की बातें। 
आगंतुक बनके आये हो ,आगंतुक बन रहो यहाँ। 
चर्चाओं में नाहक पड़ कर ,अपना नाम उजागर क्यों ?
जीवन की अमूल धारा में ,दूजा भी पैतरा चला। 
चुप हो जाओ वरना तुमको ,भूतल से करदेंगे विमुख। 
मुहं लटकाये घाट -घाट पर ,अब खुद जाकर मरो खपो। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -







Thursday, November 17, 2016

कुछ सपने जो बिखर रहे हैं

कुछ सपने जो बिखर रहे हैं ,उन पर क्या प्रलाप करें। 
एक ही बार में चौदह गुना ,लोभ किया तो अब झेलो। 
वापस लौटो उसी भूमि पर ,जो कि हमारी संस्कृति थी। 
प्रेम प्यार से जग में रहकर , सब प्राणी से प्रेम करो। 
द्वेष भाव 'औ' छल प्रपंच सब ,कूड़ों में तुरंत फेंको। 
प्रतिशोध का भाव त्याग कर ,कुछ तो संयत हो जाओ। 
वरना युग की धरा में तो ,नहीं-नहीं बच पाओगे। 
जो भी हुआ 'औ' हो रहा ,उसकी बारीकी पकड़ो। 
बहुत समाया हो जायेगा ,तो क्या लेकर जाओगे। 
सरे मनुज बंधु हैं अपने, उनका भी कुछ सुध-बुध लो। 
नाहक झोली को भारी कर ,गल औ कण्ठ सुखाते क्यों ? 
जीवन की समतल भूमि पर ,समतल भाव का प्रकटन हो। 
सुख 'औ' चैन मिले तुमको भी ,उनको राहत मिले सदा?
उसी धुरी पर रहना सीखो ,जीवन का सारा सुख लो। 
दो रोटी से क्षुधा भरेगी ,नाहक अधिक मिले क्यों होते ?
आपस में सब मिल-जुल कर के ,जीवन देश का ध्यान धरो। 
आगे बढो , उन्हें बढ़ने दो ,यही परस्पर अपनाओ। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव 




Wednesday, November 16, 2016

राजनीती की दुक्कड़यी में -2

देश काल की दिशा बदलना ,बच्चों वाला खेल नहीं। 
बातधनी क्या ,बातकही में सत्य-सत्य तुम बस बोलो ?
छू मन्तर का खेल नहीं यह ,जनता ने कुर्सी दी है। 
बिन उनके अरमान को जने ,क्या यह राजतन्त्र नहीं है ?
अपने मुहं से अपनी करनी ,झूठ को सच ,सच को झूठ। 
बड़े मसीहा बनने वाले ,तुमको क्या परिवार पता?
बिना प्रसव के महिला कैसे ,बतलायेगी प्रसव पीड़ा ?
अपने हित में अंधे हो कर ,कर डाला छलमय फैसला। 
अरे चितेरक़ भविष्य देश का दूजे के ही बल होगा। 
जन-मन का कोई भान नहीं है सुना दिया हिटलर फरमान। 
ढाई बरस बचा है ,करलो जो चाहत भी तुमको हो ?
आएंगे आगे भी तुमसे कुछ अच्छा करने वाले। 
कहाँ से रैली होती तेरी ,कहाँ से पब्लिक आती है? 
सब जन जाने रैली में पब्लिक भीड़ कैसे जुटती। 
अरे विशारद बुद्धि देवता तुमको बरमबार प्रणाम। (बाकी कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




 

Tuesday, November 15, 2016

राजनीती की दुक्कड़यी में

राजनीती की दुक्कड़यी में सज्जनता का भाव कहाँ ?
जो भी कहो वही नहीं करना,उठा देख लो चाणक्य नीति। 
जिसकी उपमा सदा देते सब, कुटूनीति का पुरोधा रहा ,
उठा देख लो उसकी कहनी-करनी में क्या फर्क रहा ?
अर्थ तंत्र पर चोट कर गए ,अब आगे क्या बोलो गे ?
अगर इशारा सही हुआ तो,अब आगे क्या खोलो गे। 
देश हितों के बने चितेरक अपना भी इतिहास कहो ?
बिना प्रूफ के बहुत सी बातें ,सच-सच बोलो सही कहो ?
ईमानदारी का ढोंग रचा कर ,जनता को भरमाते क्यों?
पैसा मेरा क्या,कैसे ,कितना निकालें बतलाओगे तुम ?
तुम्हीं कमा के दे गए मुझको लगता है कुछ ऐसा ही। 
वह रे मेरे शुभ चिंतक तुम ,धन्य-धन्य ही तुम्हे प्रणाम। 
नोट बदलने से सब कुछ है तो आगे की शपथ ,कहो ?
तेरे बाद जो भी आएगा ,क्या वह नोट नहीं बदलेगा?
वाह रे राजनीती के परचम कुछ तो चिंतन मनन करो ?
आवेशों में काम बिगड़ता ,सबको तुमने धो डाला ? (शेष कल.....)


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-











 

Monday, November 14, 2016

भौतिकतावादी युग में तो-2

ताला ऐसा मढ़ा है तूने ,क्या होगा ,क्या सुखशाला ?
मौलिकता जन-मन की होगी ,क्या सब है तेरे ही ऊपर। 
कौन परम्परा तूने ढोया ,सृष्टि का भी विध तोडा। 
तूने किसका साथ दिया है ,जिसे बना उसको छोड़ा। 
तेरा हाल समझ लो प्यारे भीष्म पितामह की होगी। 
मृत्यु शैय्या पड़ा हुआ तू मृत्यु का मांगेगा भीख। 
नहीं मिलेगा दान-पानी ,बात यही सत्यासत्य है। 
चल तू जा अब भाग यहाँ से दूर कहीं जाकर बस जा। 
तेरा कोई काम नहीं है ,ढोंगी ,लोभी ,मतवाला। 
तू भी दे प्रमाण जन-मन को,क्या-क्या सही किया तूने। 
मालूम सब है क्या करता था,और कर रहा अब क्या है ?
बस इसका सबूत नहीं ,बरी हुआ तू जा भाग जा।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Sunday, November 13, 2016

भौतिकतावादी युग में तो

भौतिकतावादी युग में तो, बस अर्थो का औचित्य बढ़ा। 
उसी अर्थ पर नाके बंदी, क्या होगा क्या रोग चढ़ा ?
बिना रोग के रोगी बनकर, जान संख्या कुछ कम होगी। 
पैसा-पैसा हाय यह पैसा, जीवन का हर्षित पल है। 
बारे कानूनों के विशारद, तूने कैसा रच डाला। 
थाती-वाती कुनबा को तो, तोड़-तोड़ मरोड़ डाला। 
अरे समझ तू ओ निर्मोही, भारत संचित देश रहा। 
दूजे के लिहाफ पर तूने, अपना धर्म गंवा डाला।  
क्या-क्या परिवर्तन कर लेगा, निहित स्वार्थ का पुतला तू। 
जो भी शपथ पहल खायी थी, उसको तूने धो डाला। 
जनता को तू मुर्ख समझ कर,नयी परंपरा डाल रहा। 
खेले, बिहंसे, ख़ुशी चैन से, कहा रहें जनता, बाला। (शेष कल.......... )

Saturday, November 12, 2016

अर्थ क्रांति का दौर आ गया

अर्थ क्रांति का दौर आ गया ,पैसा ले कर दौड़ रहे-सब। 
नन्हें-मुन्हें,बूढ़े ,जवान ,उधर बड़ों को साँप सूंघ गया। 
जिनके पास है कलुषित माल ,ताल ठोक कर गाल बजाकर।
खिसियानी बिल्ली से हंसते ,चाल उन्हीं की कम से कमतर,
बड़े नोट का टोटा पड़ गया , बैंक-डाकघरों में भरमार। 
कहाँ पे जाएँ,क्या-क्या लाएं,पैसों फुटकर की है किल्लत। 
घूमा-फिरा के केंद्र बोलता,थोड़ा धैर्य करो तो जन-मन।  
 नए दौर में नया रुपैया,कर जायगा सबको धमाल। 
काली,लाल,पीली आँखों में ,फिर डोलेगी ख़ुशी कमाल। 
नहीं कर रहे थे जो अबतक,अब मजबूरी बानी मिसाल। 
आयकरों की घेरा बंदी में,सबको होना होगा हलाल।
जोड़-तोड़ में कहाँ हैं पीछे ,आयकरों के अधिकारी भी। 
वहीँ बताएँगे जुगती सब , कैसे काला होये लाल। 
बचे-खुचे जो बच जायेंगे , उनको सी.ए. देंगे सलाह।   
यहाँ का जोड़ो,वहां का तोड़ो , पैसे शुद्ध बने सुखलाल। 
पैनी नजरें क्या कर लेंगीं ,ठग तो बहुत रूप में मिलते। 
जनता मिमयाये,मिमयाये,उनको  तो क्या फर्क पड़ेगा। 
वह तो मौज से घूमे फिरें,उनको क्या सुध-बुध जनमन की। 
मगर रास्ता जो दिखलाया,उससे आ गया भूचाल। 
कुछ सुधरेंगे ,कुछ बौने हो,करते जायेंगे कमाल। 
लेकिन वक्त तराजू का तो,राह पे लाएगा उनको फिर।  
कहते जाओ सुनते जाओ,सबके लिए है एक कानून। 
थोड़ा सोचो,थोड़ा मोचो,सब जनता पर मत डालो। 
कुछ तो अपना कुनबा सुधारो,कहाँ से आता चंदा-वंदा। 
उसकी भी कुछ रपट दिखाओ,जनता समझे तुम्हें मिसाल। 
वरना डंका पीटो जो मन,चाहे जनता बहु मिमियाए। 
मौज करो तुम कुर्सी बैठे,जनता होती रहे हलाल। 
वह रे लोकतंत्र के दिग्गज ,फरज तुम्हारा अव्वल यह है। 
जो तुम करो वही अपनाओ,तब जनता समझेगी लाल। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -





Friday, November 11, 2016

जीना जंजाल हुआ, दुनिया की बातें

जीना जंजाल हुआ, दुनिया की बातें ,
इनकी सुनो,उनकी सुनो, कैसे कटे रातें।
कहते हैं चोर नहीं , पैसा कहाँ पाए ,
जीवन के संगति में, जोड़-तोड़ आये।
सोचा तो नहीं था , कैसे दिखाएँ ,
माल थोड़ा ज्यादा है ,समझ में न आये।
जाएँ जमा करने, राज खुल जाये ,
इसी उधेड़ बुन में, जंजाल बना जीवन।
ठोक-ताल नेतृत्व , बांछे तो खिल गयीं,
जनता जनार्दन प्रशंसा में जुट गयीं।
जी का जंजाल हुआ ,उनका अब जीवन ,
कैश रख मौज से ,मोछा जो टेयें ।
अब तो हे भैया , मोछा कहाँ  जाये ,
लाग-लपट में , दिनचर्या भरमाये।
सुबक रहे भीतर ही ,आंसू न छलकाऐं ,
कौन जतन करें ,अब पैसा क्या दिखाएँ।
बात सारी समझ बूझ ,रणनीति बनाये,
कैश को कहाँ-कहाँ जमा करने जाये ?
चाप बड़ा तगड़ा है ,मुहं क्या दिखाए?

 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -












Thursday, November 10, 2016

बोट-नोट का चक्र चला तो

बोट-नोट का चक्र चला तो ,
दुनिया हो गयी फानी। 
अमरीका में बोट का डंका ,
ट्रम्प बने गुणखानी।
भारत में नोटों की महिमा ,
बड़-बड़ हो गए पानी। 
पासा फेका ऐसा -उनने ,
चारो खाने चित। 
क्या बोलें ,क्या-क्या खोलें ?
सिट्टी-पिट्टी गुम। 
मात्र यही कथन है वाजिब ,
काम हुआ है अच्छा। 
मोदी तुमने ठोका -
ताल-तुम्हारे में सब हो गए रुंध, 
बड़े-बड़े तूफानी। 
धन्य-धन्य हे भारत सुत तुम ,
तुमको कोटि प्रणाम। 
जनता का भी खट्टा-मिट्ठा ,
अनुभव बाटो अविराम। 
यही तुम्हारा उद्घोष ,
रमे हुए जो सब में। 
समझो-दूर दर्शी तुम तो हो ,
बात समझ लो मेरी। 
बस यही आकांक्षा तुमसे ,
स्वार्थ से उठ कर सोचो। 
आना-जाना कुर्सी का तो ,
लगा हुआ है रहता।
कर जाओ वह काम भी प्यारे ,
बन जाओ सुत पक्के। 
भारतवासी 'औ' भारत माँ ,
तुम्हे देंगे आशीष। 
बढ़ो , करो बस एक काम तुम ,
अच्छे-अच्छे भाई। 
मानव मन  में धर्म की आस्था ,
अपनी-अपनी होती। 
यही हमारा धर्म मनुज है ,
विमर्श करो , कुछ सोचो। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, November 9, 2016

नहीं चाहता याद तुम्हारी

नहीं चाहता याद तुम्हारी ,नहीं चाहता तुम आओ,
यही चाहता रहो जहां तुम ,फलो-फूलो 'औ' आगे बढ़ो।
दुनिया का संताप तुम्हे ,छूने से भी घबराएं ,
कर्म बेली के पथपर आगे , बढ़ो और नित कर्म करो।
विगत का सम्मान करो 'औ'वर्तमान में सुखी रहो ,
आगत का संजो कर सपना ,कर्म मार्ग पर डट जाओ।
तुम्हे मिले हर दिन सुन्दर सा , सुन्दर सा तुम फूल बनो ,
महको खूशबू से अपनी ,जगत सुधामय हो जाओ।
तुम तो अलग-विलग की बातें,न सोचो न ध्यान करो,
कंटक राहों को सुलझाओ 'औ' नया तुम मार्ग गढो।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, November 8, 2016

जीवन मिला तो जीना इसे है

जीवन मिला तो जीना इसे है। 
जीने की भी तो बहुत सी कला है। 
पकड़ हाथ चल दो -जो साथी बने हैं। 
करम से जो अपने पैर पे खड़े हैं। 
उन्हें साथ करके-आगे बढ़ो तुम। 
डगर सत्य होगा, करम जो सही। 
यहाँ भाग्य कुछ भी,करम के बिना क्या?
कायरों की बातें ,इसे त्याग बढ़ लो। 
वही बात सच है ,कुटुंब से मिला जो। 
ज़माने की चादर में मत ही पड़ो तुम। 
करम बेल पथ है ,करम ही सभी कुछ। 
इसी बस कला को ,जीवन में धर लो। 
मिलेगा जो चाहो ,नहीं कोई बाधा। 
डगर एक जीवन का , इसको बना लो। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, November 7, 2016

सुबह बात एकदम ही ताजी मिलेगी

सुबह बात एकदम ही ताजी मिलेगी ,
सुखद रोशनी में ये दुनिया खिलेगी।
चमन में जो महके ,वो फूल पड़े हैं ,
उसी गंध में तुम-जरा मुस्कुरा दो।
नहीं जिंदगी में कोई पैबंद रखना ,
कि फूलों के जैसा जीवन में महक लो ।
आओ साथ चल दें ,उसी गुल चमन में ,
जहाँ सत्य ,गंध 'औ' मौसम सुखद है।
यही तो है जीवन की खुशियां लहर है,
सभी जीव अपने-यह प्यारा जगत है।
संजोना सभी को ,हो सम्बन्ध अच्छे ,
यही साथ जायेगा बस सोच लेना।
गुलों का गुलिस्ता यह जीवन वशर है ,
सुखद रागिनी के ही मौसम में रहना।    


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -    

Sunday, November 6, 2016

डम-डम-डम डमरू बाजे

डम-डम-डम डमरू बाजे डम-डम-डम।
मंचों पर नेता है नाचें ,
आवाजों में खनक नहीं है।
 चिल्लाहट और नारे हैं।
लोकतंत्र के अजब पहरुए ,
तेरा कैसा तंत्र बना ?
कहते हो -जब हम आएंगे ,
नंबर वन प्रदेश बनेगा।
स्वार्थी पुतले , ओ नेताओं ,
मुख से तो -समवेत रहो।
झूठी वाणी ,झूठे वादे ,
जनता मुर्ख नहीं होती।
माना जनता सदियों से ही ,
सोती 'औ' बधिर बानी।
पर तेरा क्या फर्ज है पुरुषों ,
पुरुषोचित कुछ कर्म करो।
कैसे आये - तुम गलियों से ,
सड़कों पर मत नृत्य करो।
माना तेरा कुम्भ है आया ,
झूमो,नाचो, मस्ती में ,
दम्भी बन कर -तुम मंचों पर ,
जनता को भरमाते क्यों ?
कौन सत्य है -जो तुम कहते ,
असत्यों के पुतले तुम।
लोकतंत्र की मर्यादा को-
तार-तार, खंडित करते।
अपना-अपना कुनबा भरते ,
अपनी पार्टी का गुणगान।
अपने मुख से अपनी करनी ,
दूजे की भी -तुम सुन लो।
वह मजलूम -खड़ा कोने में ,
फटेहाल-जो सुनता है।
उसको पीछे ,क्यों करते हो ?
आगे -उसको कर, बोलो।
जनता भीतर -जो आकांक्षाएं ,
उसका कुछ परिमार्जन हो।
वार्ना जीतो ,कुर्सी पकड़ो ,
भ्रमण करो ,तुम जी भर के।
फूलों का गलमाल पहन कर,
मंचों पर बस इतराओ। (आगे फिर कभी... )  


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -












Saturday, November 5, 2016

कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं

कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं ,
तो मैंने कुछ गीत लिखे। 
गीतों में सरगम कुछ चाहे ,
हो भी न हो फिर भी तुम। 
सुनो हमारे इन गीतों में ,
प्रेमी का मनुहार नहीं। 
नहीं छंद है इसमें कोई ,
अलंकार की बात सही। 
मगर मैं लिखना चाहूँ ऐसा ,
गीतों में मानवता हो। 
मानव मन में दम्भ न कोई ,
बस करुणा की बातें हों। 
वह जो सड़क तरफ कोने पर ,
घिघियाति बैठी है-जो। 
नहीं मांगती पूँजी,दौलत ,
भिक्षा दे दो तुम उसको कुछ। 
क्या सब हो गयी इतिवृत्ति अब ?
नहीं मनुज तुम, नहीं उसे दो ,
भिक्षा ,केवल काम दो। 
फिर देखो वह बबुनी बनकर ,
नाम करेगी अपना भी। 
और एक नागरिक जुड़ेगा,
भारत का जो सपना है। 
हम सब एक समान बनेंगे ,
गर इस हित-हम सोचें सब। 
यही बात कहानी है केवल ,
यही के कारन गीत लिखा। 
       कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं ,
       तो मैंने कुछ गीत लिखे।

 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -






Friday, November 4, 2016

यह कविता संसार है सारा

यह कविता संसार है सारा ,
तरह-तरह के फूल  इसमें। 
कुछ में महक ,हैं कुछ बिन महके ,
लेकिन सब में अपनी रंगत ,
कोई चुने , कोई चढ़ाये ,
भक्ति भाव से ,श्रद्धामय हो ,
सबको इससे प्रेम सहज है। 
कोई भेद भाव नहीं इसमें,
हिन्दू ,मुस्लिम,सिक्ख ,ईसाई ,
सब में यह है सबसे दुलारा। 
          यह कविता संसार है सारा ,
          तरह-तरह के फूल  इसमें। 
हिमगिरि के उत्तंग शिखर पर ,
फूल सहज ही खिल जाते हैं। 
जीवन का संचार है उसमे। 
वह देता है भव को अमृत ,
उसमे दोनों भाव हैं मिलते। 
श्रद्धा,भक्ति समन्वय सारा। 
          यह कविता संसार है सारा ,
          तरह-तरह के फूल  इसमें। 
भोर पहर यह खिल जाते हैं। 
प्रकृति के श्रृंगार यही हैं। 
प्रकृति में यह रचे-बसे हैं। 
प्रकृति के उद्गार यही हैं। 
इनसे जीवन जीना सीखो। 
प्रेम और गुलजार यही हैं। 
हरदम हरपल देते रहते। 
कभी नहीं लेने की इच्छा। 
यह तो प्रकृति सुकुमार बहुत हैं।  
इनसे मिलता है सुख सारा। 
              यह कविता संसार है सारा ,
               तरह-तरह के फूल  इसमें।  
आवागमन लोक का सच है। 
काम,क्रोध,मद,लोभ यहाँ है।
प्रेम यहाँ स्थायी भाव। 
बाकी तो सब संचारी हैं। 
सुख दुःख की हैं परतें यहाँ पर। 
कर्मो से सब बंधे हुए हैं। 
कर्मो का रिश्ता है सारा। 
             यह कविता संसार है सारा ,
             तरह-तरह के फूल  इसमें। 










 

Thursday, November 3, 2016

दुर्दिन में आंसू पीकर के

दुर्दिन में आंसू पीकर के ,
स्मृति का देखा बस लेखो।
ढरके मन को विश्राम करो,
बस मौन रहो, तुम मौन रहो। 
काट जायेंगे विश्रांत बादल, 
आने-जाने दो जीभर के।  
आराम शांत बस मौन रहो। 
कट जायेंगे  दुःख रजनी के। 
हर रात के बाद सवेरा है ,
हर सुबह के बाद शाम आती। 
पीड़ाओं की गठरी भी तो,
ऐसे ही चली-चली जाती। 
छलकाओ मत आंसू अपना ,
यह नयन रतन के मोती हैं, 
इनको तो सजोना है तुमको,
सुख में ही बरसाना इनको,
ये सुखद सहज सगोति हैं। 
          दुर्दिन में आंसू पीकर के ,
         स्मृति का देखा बस लेखो।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, November 2, 2016

चन्दन, रोली, आरती

चन्दन, रोली, आरती, हाथ फूल 'औ' माल।
जीवन का सुख इसी में, नित हो गाल गुलाल।
नारी जग की है सखी, गर तुम करलो प्रीत।
वरना वह दुर्गा बानी, हर लेगी हर खींस।
खींस निपोरे जग फिरो, कुछ न होगा काम।
गर तुम प्रेम में रमोगे, जीवन हो सुखधाम।
आथर-पाथर जोड़ना, जीवन का नही मोल।
प्रेम परस्परता बस करो, इसी में जग की जीत।
वरनाो जगत भर, आवारा पशु भात।
कुछ भी न मिल पायेगा, जाते हुए अनाथ।
इसी लिए मैं कह रहा, जीवन एक संगीत।
प्रेम का गो गीत बस, रो बने जगदीस।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव-

Tuesday, November 1, 2016

हिमंग शुभ्य भारती

A poem of Umesh chandra srivastava


हिमंग शुभ्य भारती ,तरंग ,उमंग उकारती।
विहंग दंग देखते , तिरंग ज्ञान भारती। 
कहे चलो ,कहे चलो, मिटे जनों की कालिमा। 
प्रफुल्लित होये लालिमा , प्रसन्न झूमते चलो। 
                                    कहे चलो, कहे चलो। 
बिगत तो बीत अब गया, आगत की सोच ज्ञानती। 
निर्विघ्न मार्ग हो प्रशस्त , सुधि बने सभी ये जन। 
यही है आश भारती ,कहे चलो ,कहे चलो। 
नगर-नगर ,डगर-डगर ,चमन हो गुल चषकमयी। 
गमक में उसके झूमते , चले नगर -नगर सभी। 
कहें सभी-सभी यहाँ ,है भारती , है भारती। 
                                        कहे चलो कहे चलो। 
प्रताप ,उनका शौर्य है ,उल्लास उनकी दृष्टि है। 
सुपुष्ट देहं  धारियों , स्वदेश के पुजारियों। 
कहे चलो , कहे चलो ,तिरंगा मेरी शान है। 
यह भारतीय की शान है ,उठा इसे कहे चलो। 
                                        कहे चलो , कहे चलो। 
न कोई सर उठा सका , न पार कोई पा सका। 
भुजंग जितने आ डटे , हटा, हटो कहे चलो। 
कहे चलो ,कहे चलो ,सब प्रेम भाव पास हो। 
बस समृद्धि की आश हो ,सुसंस्कृत हों जन सभी। 
                                        कहे चलो ,कहे चलो। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 










काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...