month vise

Thursday, September 15, 2016

कुछ मुक्तक

            (1)
जतन से 'औ' सलीके से,
तुम्हे पुचकार कर रखा। 
बड़े ही बेसबब निकले,
बताये बिन निकल भागे। 

            (2)
वह जो दूर बैठा है, 
बहुत ही शांत सा होकर। 
नही कोई फरिश्ता है,
महज इंसान वह भी है। 

            (3)
सहेज है बहुत सी बात,
अब जाने को आतुर हो। 
मनुज यह ठौर है तेरा,
बसेरा बन के छूटेगा। 

            (4)
पकड़ के बाह को कस करके,
जब उसने मरोडा था। 
सभी ही बंदिशे टूटी,
मुहो से आह निकली थी। 

            (5)
निवाला एक भी घर में नही था,
वो भी आ धमके। 
करे अब क्या जतन कोई,
नही कुछ समझ आताहै। 

            (6)
दीवारों पर उभर कर-दृश्य-
कुछ प्रबिम्ब जैसे है। 
दिखाई पड़ रहे है वो,
मन की जो  आवृति अंदर। 

            (7)
नही कुछ चाहिए उससे,
दिया है तन सलीके सा। 
हमी ही भूल जाते है,
ये तन उसकी नियामत है। 

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...