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Friday, September 30, 2016

बढे चलो

रणबीच सैनिकों के आगे ,पाक का हौसला पस्त हुआ। 
भारत के लाल सपूतों ने ,इनके छक्के सब छुड़ा दिए। 
संगीने लेकर दौड़-दौड़,'औ' घेर -घेर के मारा है। 
तुम वीर सपूतों भारत के ,तुम पर धरती तो नाज करे।
तुम डटे रहो घुस जाओ तुम,उन देश के सब गद्दारों को। 
जो भी फितरत में द्रोही हों ,उनको तुम मार गिराओ अब। 
तुम वीर जवानों भारत के ,सैनिक अमर दृढ़ योद्धा हो। 
जब-जब सरहद पर आंच लगी ,तुमने डट करके मारा है। 
दुश्मन के हौसले चूर-चूर ,तुमने उनको ललकारा है। 
यह पाक-वाक जितने सारे , सब को तुम मार भगाओ अब। 
धरती के अमर हे वीर पुरुष ,तुम पर भारतवासी सब नाज करे। 
तुम डटे रहो, तुम बढे चलो ,दुश्मन को भगा कर ही मानो। 
तुम पर न्योछावर जन सभी , अपने को अकेला मत जानो। 
यह भारतवासी जितने हैं ,सब साथ तुम्हारे खड़े हुए। 
कंधे से कन्धा मिला -मिला ,दुश्मन को मार भगाएंगे। 
तुम बढे चलो,तुम बढे चलो,यह पाक नापाक इरादे को। 
तुम ध्वस्त करो चकनाचूर ,तुम भारत के हो लाल अमर। 
तुम पर है नाज सभी जन को ,तुम बढ़े चलो ,तुम बढे चलो। 
सरहद के जवानों बढे चलो ,वह माँ जननी भी धन्य हुई। 
जिसने तुम्हे कोख में पाला था,उसका ऋण भार उतारो तुम। 
 भारत के सैनिक बढे चलो ,तुम बढे चलो,तुम बढे चलो। 
जय हो भारत की जय बोलो ,मन के सारे पट को खोलो। 
तुम अमर पुरोधा बढे चलो , तुम बढ़े चलो ,तुम बढे चलो।




Thursday, September 29, 2016

शब्द बंद ,तुम छंद बानी हो

शब्द बंद ,तुम छंद बानी हो ,
तुलसी की चौपाई तुम।
कबीरा की साखी की जैसी,
सूरदास की पदावली।

तुम मीरा की प्रेम ,प्रेम हो ,
पन्त ,प्रसाद की छाया तुम।
महादेवी की विरह विरहणी,
और निराला का ओज हो तुम। 

तुम तो सरस वायु बयार हो ,
अज्ञेय सी गंभीर हो तुम।
नागार्जुन की बिम्ब तुम्ही हो ,
मुक्तिबोध का अंकन तुम।

तुम्हे बताओ क्या उपमा दूं ,
घनानंद की घन हो तुम।
मालिक जायसी की 'पद्मावत ',
तुलसी की बिरवा हो तुम।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -







Wednesday, September 28, 2016

काले घन से बाल तुम्हारे

काले घन से बाल तुम्हारे,
जब लहराते गालो पर। 
ताल-तलैया थिरकन होती,
मन मंदिर चौबारों पर। 

घुंघट का पट खोल खड़ी तुम,
बलखाती हो बयारो सी। 
तुम्हे निहारु प्रेम पुंज की,
देवी मैं चौबारों पर। 

तुम आलस की विजय पताका,
रुन-झुन करके आती हो। 
मैं तो सिहर-सिहर उठ बैठा,
मंदिर 'औ' गुरुद्धारों पर। 

तुम हो प्रेम, धर्म से ऊपर,
राग-द्वेष से मुक्त रहो। 
मैं अलबेला टक-टक देखू, 
तुम्हे गगन, मही ऊपर। 

तुम हो  प्रबल, मनुज की बल हो,
नाहक तुम्हे अबल कहते। 
तुम्हे देख हर रोम-रोम का,
रुधिर उमड़ता पारो पर।  
                                 -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Tuesday, September 27, 2016

वही रोज आना ,वही रोज जाना।-(3)

वही रोज आना ,वही रोज जाना।
वही रोज बातों का,कहना-सुनना।

यहाँ प्यार बस है ,यह प्यारा जगत है।
यहाँ प्रेम के ही वशर ,सब वशर हैं।
यहाँ प्यार जीस्त और जीस्त ही जगत है।
ठहर करके देखो -यह प्रेम नगर है।
यही देख-देखो , दिखाना-दिखाना।
यही बात सब को जाताना-सुनना।

यहाँ सब हैं योद्धा ,सभी प्रेम योद्धा।
नहीं है जगत में भी कोई विध्वंसक।
सभी जग के प्राणी अहिंसक-अहिंसक।
इन्हें प्यार दे दो ,ये प्रेमी, पुजारी।
करो 'औ' दिखाओ , ये करना-बताना।
जगत की यह बातें, सभी को सुनना।
 
वही रोज काली की  शक्ति बताना।
वही रोज दुर्गा की भक्ति  सुनना।
 समझ लो जगत की है धात्री हमारी।
यह शक्ति ,यह भक्ति सभी कुछ हमारी।
जनम देके सेवा जो करती हमारी।
उसे बस ही पूजो , उसे बस सराहो।
यही तुम बाताओ  सुनना -सुनना।
         वही रोज आना ,वही रोज जाना।
         वही रोज बातों का,कहना-सुनना।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Monday, September 26, 2016

वही रोज आना ,वही रोज जाना - (2)

वही रोज आना ,वही रोज जाना।
वही रोज बातों का,कहना-सुनना।

यह जगत सत्य है 'औ' तुम्ही सत्य प्राणी। 
नहीं कोई दूजा है ईश्वर अनाड़ी। 
तुम्ही जग के कर्ता, तुम्ही जग के धर्ता। 
यह संतों की वाणी बताना-बताना।

 जगत में प्रिया है सिया प्राण प्यारी। 
'औ' पुत्री जगत की है शक्ति हमारी। 
उसे बस संजोना ,उसे साथ रखना। 
जगत की है माता यह धरती हमारी। 
यही बात समझो बताना -सुनाना। 

 धरम बस वही है जो धारण किये हो। 
करम बस वही है जो करते चले हो। 
मनन से ,लगन से ,यही याद रखना। 
जो करते चले हो ,वही तो मिलेगा। 
सदा सच की वाणी, तो सच ही मिलेगा। 
मगन हो, सदा मन में पुष्प खिलेगा। 
यही बस बताना ,यही बस सुनना। 
यही याद रखना  , यही गुनगुनाना। 
    
     वही रोज आना ,वही रोज जाना।
     वही रोज बातों का,कहना-सुनना।    (शेष कल)


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, September 25, 2016

वही रोज आना ,वही रोज जाना।

वही रोज आना ,वही रोज जाना।
वही रोज बातों का,कहना-सुनना।

वही रोज जग की ही बातें बताना।
 समझना ,समझना ,समझ के समझना।
ये ईंगला ,ये पिंगला ,सुषुम्ना बताना।
वही रोज कबिरा का किस्सा सुनना।
वही रोज तुलसी की बातें बताना।

वही कवि की कविता में लक्षण बताना।
कहाँ कौन रस है बताना-सुनाना।
है रोला ,या मनहर या दोहा बताना।
अलंकृत है कविता इसे भी दिखाना।
है भावों का सीधा भवन है कहाँ पे।
यही बस सुनना ,यही बस दिखाना।

वही रोज आँखों का झपना-झपाना।
वही रोज लैला ,वही रोज मजनू।
वही रोज पढ़ना ,पढाना ,पढाना।
यही रोज दिन है हमारा-तुम्हारा।
नियम से तुम उठना ,उठाना-उठाना।
सुबह उठ के पहले हसाना-हसाना।
यही बात सब को बताना-सुनना।

                       वही रोज आना ,वही रोज जाना।
                       वही रोज बातों का,कहना-सुनना।
                                                                     (शेष कल. . . . )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




Saturday, September 24, 2016

कोई पराया है नही, गर तुम मनो बात।

कोई पराया है नही, गर तुम मनो बात। 
रक्त के रिश्ते हैं प्रबल, लेकिन प्रेम के साथ। 
प्रेम, प्यार गर है नही, सब रिश्ते बेकार। 
इसको जिसने सजोया, वही बना प्रभात। 
आँसू ढरके गाल पर, जलामग्न गर हो। 
प्रेम पुकारो, प्रेम से, आ जायेंगे लोग। 
आजायेंगे लोग, यही जग की है थाती। 
वरना घूमो फिरो, नही कोई संघातों। 
                                                   -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Friday, September 23, 2016

'दिनकर' के जन्म दिवस पर आज।

'दिनकर' के जन्म दिवस पर आज।
कहना चाहूंगा कुछ तात।
राष्ट्रवाद की जो भी बातें,
'दिनकर'की कविता में है।
वही चेतना सहज तूलिका ,
आज हमारे मन में हो।
भाव-स्वभाव में समतुलता हो  ,
'औ 'मंतव्य हो एकदम साफ।
यह एक बात समझनी होगी।
हम साथ राष्ट्र ध्ररोहर हैं।
जो हम करेंगे , वही भरेंगे ,
आगे आने वाले लोग।
इसी लिए दमभर कहता हूँ।
देश हमारा प्रथम हो प्रेम।
बाकी दुनियादारी जरूरी ,
जितना हो सफराये  हम।
मगर देश के खातिर मित्रों -
स्वार्थ को न अपनाये हम।
देश की सत्ता में जो बैठे ,
अहंकार,मद , लोभ लिए।
उनको प्यारे सहज भाव से -
करना है बस यह अनुरोध।
पार्टी हित में बात करें वो ,
पर यह ध्यान रहे सदा।
भावी पीढ़ी, वर्तमान में ,
जो भी बोले यदा-कदा।
झूठी डींगे छोड़- छाड़ के ,
सीधी-सीधी  बात कहें।
जनता को वह न भरमाये ,
धर्म 'औ' संप्रदाय लिए।
जनता को मालूम है भाई।
धर्म,संप्रदाय की बात कहाँ ,
समझ बूझ के सत्ता चलाएं ,
जिससे देश का मान बढे।
नित नूतन नव बात कहें वो ,
पर जिसमे देश हित हो।
यही निवेदन प्रेम भाव से ,
तुम सब भारत के हो लाल।
ध्वज तिरंगा लेके झूमो ,
मस्ती में तुम मलो गुलाल।
















Thursday, September 22, 2016

पास दर्पन हो तो खुद स्वयं देखिये

पास दर्पन हो तो खुद स्वयं देखिये।
आप अपना खुदा  सब समझ जायेंगे।
किसका अच्छा किया, किसका सर है कलम,
दर्पनों में सभी कुछ नज़र आएंगे।
मुस्कुराने की आदत यहाँ पल रही ,
बस खुदी पर जरा मुस्कुरा दीजिये।
यह है प्यारा जगत , यहं सुखन हैं बहुत ,
उनकी कविता को बस हंस दुआ दीजिये।
वे स्वयं ही बनेंगे , दादू, मीरा 'औ' गंग ,
बात कबिरा की बस गुनगुना लीजिये।
क्योंकि कबिरा की बातों में सच है बहुत ,
केवल कबिरा की साखी सुना दीजिये।  

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, September 21, 2016

शत कोटि नमन

जो गए सपूत हमारे तो,
उनको है शत-शत बार नमन। 
सत्ता में बैठे-नेतागण ,
कुछ तो शर्मिंदा होवो  तुम। 
माना तुमने है व्यक्त किये -
'शहीद हमारे जितने हैं ,
हम उनके बलिदानो को तो ,
जाया नहीं होने देंगे कभी। '
यह पाक पड़ोसी जो मेरा ,
उसकी क्या इतनी हिम्मत है। 
वह सोते हुए रणबाकुरों को ,
भारत के लाल सपूतों को ,
सीमा के रक्षक सैनिक को ,
ऐसे ही मरेंगे आकर। 
उनकी हिम्मत को पस्त  करो। 
वह जहाँ भी हो सीमा करीब ,
उनको तुम दौड़ा -दौड़ा कर ,
सीमा के पार भगाओ  तुम। 
बस बात करोगे ऐसे ही ,
तो पाक करेगा मनमानी। 
जो तना-तनी, अफरा-तफरी ,
सीमा पर बनी हुई अब है। 
उसका तो कुछ - तोड़ तो दो ,
ये पाक मंसूबे को तुम तो ,
उसके ही मुहं में मरोड़ तो दो। 
बस यही हमारी श्रद्धा है। 
है वीरा सपूतों को मेरा। 
शत कोटि नमन ,शत कोटि नमन।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, September 20, 2016

ज्ञान की गंग धारा बहेगी यहाँ

ज्ञान की गंग धारा बहेगी यहाँ।
ज्ञान चक्षु को जरा खोल कर देखिये। 
इसमें आगम -निगम सब मिलेगा तुम्हे।
कुछ पहर तो जरा साधना कीजिए।

सब सुखों का है सागर , यह प्यारा जगत।
फूल,फल है यहाँ ,वनस्पतियां बहुत।
जल का स्रोता यहाँ ,ज्ञान का पक्षधर।
ज्ञान गंगा में डुबकी लगा लीजिए।

वेद कहते सदा ,ज्ञान भंडार है।
उपनिषद का यहाँ ,बहुमुखी द्वार है।
'औ' पुराणों में किस्से हजारों पड़े।
इन सम्मुच्चय को बस गुनगुना दीजिये...(क्रमशः)

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, September 19, 2016

मैं कवि हूँ ,कविता लिखता हूँ।

मैं कवि हूँ ,कविता लिखता हूँ। 
कविता के खातिर जीता हूँ। 
कविता है मेरे कर्मो में ,
कविता है मेरे धर्मो में ,
कविता में सोना जागना है ,
कविताई में ही  रहना है। 
कवि की बातो का क्या कहना ?
कविता करने वाले कितने ,
आए कविताई करके गए। 
कुछ धर्म की बातें करके गए। 
कुछ मर्म बता कर चले गए। 
उन कवियों की कविताई में,
अपना- अपना ही विम्ब दिखे । 
उनके दर्शन की दुहाई है। 
वह अच्छा लिख कर चले गए।  
दुनिया तो उनको याद करे । 
उनके यादों में झूम-झूम। 
अभी और आएंगे कविजन भी ,
अच्छी कविता करने वाले। 
अच्छा-अच्छा कहने वाले। 
दर्शन का गुच्छा  खोलेंगे । 
वो भी कल होंगे कालजयी । 
नतमस्तक होंगे हम सब भी। 
मैं तुम्हे सुना कर कहता हूँ । 
             मैं कवि हूँ ,कविता लिखता हूँ। 
             कविता के खातिर जीता हूँ। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, September 18, 2016

पेड़, मौसम ,आदमी

पेड़, मौसम ,आदमी तो-
हर जगह दिख जाएंगे।
पेड़ सदियों से खड़ा है ,
अपनी निजता को लिए।
मौसमो का क्या भरोसा ?
आज पुरवा कल है पछुंआ।
आदमी का क्या पता ?
कल वह किधर को जायेगा।
आज प्रेमी बन के आया ,
कल बहुत टकराएगा।
क्या भरोसा ?
बात ही, बातों में वह,
 सब को बना  जायेगा।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -



Saturday, September 17, 2016

पास बैठो जरा बात मुझसे करो ,

पास बैठो जरा बात मुझसे करो ,
ये जो तनहा समय है गुजर जायेगा। 
चुप रहोगी तो बातें बिगड़ जाएंगी ,
बात करने से सब कुछ संवर जायेगा। 
यह शिकन जो है माथे पे छाया  हुआ ,
मुस्कुराओ तो तबियत बहल जाएगी। 
मुक्त गफलत जो तुम तनी हो वहां ,
पास आओ  जरा कुछ सुकुं  तो मिले। 
यह तो जीवन है चलता यहाँ नोक-झोक ,
खिलखिलाओ तो मौसम बदल जायेगा।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, September 16, 2016

पांच देवता सत्य हैं

पाँच देवता सत्य हैं ,जो नित रहते पास। 
इनका ही सेवन करो , मन हो जाये उजास। 
क्षिति,जल,पावक,गगन ये, है समीर अहसास।
उनसे ही दुनिया रची 'औ' तन मन पुलकात। 
बाकी सब तो मिथ्य है ,मन रचना अनुकूल। 
कथा,कहानी  में गढे, इनके चरित्र अनूप। 
यह जग में ही रहन का , देते मात्र हैं सीख। 
किस्से में  इनके मिले, नव विचार नव रस। 
इनको मनो इष्ट तुम ,यह निजता की बात। 
पर मेरे मत में सही, पाँच देव हैं तात।  

उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 

Thursday, September 15, 2016

कुछ मुक्तक

            (1)
जतन से 'औ' सलीके से,
तुम्हे पुचकार कर रखा। 
बड़े ही बेसबब निकले,
बताये बिन निकल भागे। 

            (2)
वह जो दूर बैठा है, 
बहुत ही शांत सा होकर। 
नही कोई फरिश्ता है,
महज इंसान वह भी है। 

            (3)
सहेज है बहुत सी बात,
अब जाने को आतुर हो। 
मनुज यह ठौर है तेरा,
बसेरा बन के छूटेगा। 

            (4)
पकड़ के बाह को कस करके,
जब उसने मरोडा था। 
सभी ही बंदिशे टूटी,
मुहो से आह निकली थी। 

            (5)
निवाला एक भी घर में नही था,
वो भी आ धमके। 
करे अब क्या जतन कोई,
नही कुछ समझ आताहै। 

            (6)
दीवारों पर उभर कर-दृश्य-
कुछ प्रबिम्ब जैसे है। 
दिखाई पड़ रहे है वो,
मन की जो  आवृति अंदर। 

            (7)
नही कुछ चाहिए उससे,
दिया है तन सलीके सा। 
हमी ही भूल जाते है,
ये तन उसकी नियामत है। 

Wednesday, September 14, 2016

हिंदी दिवस पर विशेष

हिंदी दिवस का पर्व सुहाना।
आओ हम सब मिलकर गायें। 
हिंदी को जन-जन अपनाये,
बने विश्व की भाषा। 
यही है अभिलाषा,
यह मन सुलभ-बहुत प्रिय बोली। 
इसी से जुड़ती, असंख्य ठिठोली। 
कई मुहावर-इसमें होते। 
लोकोक्ति की तो बात निराली। 
यह तो डोले गांव-गांव में,
शहर में इसकी होती बोली। 
शहरो में जो भी हैं प्राणी,
गांव से रिश्ता रखने वाले। 
वे निज घर में अपनी बोली,
मात्र परंपरा को ही फैलाये। 
और यही सब इन बोली को,
परिमार्जित कर भाषा बनाये। 
क्या कोई भी और बताओ?
है हिंदी की नई परिभाषा?
बिमर्श करो बस इसी धुरी पर,
कहो- बने यह, विश्व की भाषा। 
यही शपथ मिलजुल हम खाये,
हिंदी का वितान बढ़ाये। 
हिंदी का हम फूल खिलाये,
उपवन ही हिंदी का बनाये। 
चलो सभी जन मिलजुल करके,
हिंदी दिवस का पर्व मनाये।  
                                          -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Tuesday, September 13, 2016

गर तुम मेरा साथ न दोगे

गर तुम मेरा साथ न दोगे ,
तो क्या मैं जी पाउँगा।
भंवर पतंगे सा यह जीवन ,
डोल-डोल भून जाऊंगा।

दूर गगन पर आसमान की ,
चादर चिकनी चिकनेदार।
उसमे चंदा की है बिंदी,
कितनी मनोहर है चटकार।

जैसे कोई सीता सजी हो ,
मुखड़ों पर झल-मल चमके।
दन्त, नासिका ,नयन कमल से ,
गालों पर गुलबाग लिए।

छन -छन आती मंद बयारें ,
घूंघट का पट खोल रही।
हिरन थिरक कर नाच उठे हैं ,
मानो सब गुलज़ार हुआ।


-उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Monday, September 12, 2016

मनु-सतुरूपा

मनु-सतुरूपा  प्रेम से, रहते थे निज धाम।
धर्म निष्ठ प्राणी दोनों ,दोनों का बस काम।
दैनिक कर्म से छूट कर , करते पूजा-पाठ।
 देव शरण में ही सदा, करते  रहते जाप।
पाप-पुण्य के अर्थ में, नहीं गंवई बात।
तप बल के ही तेज से, दोनों बने सनाथ।
उनकी पूजा से प्रसन्न, एक दिन उनके धाम।
प्रभु स्वयं आकर कहे ,बोलो मांगों वरदान।
प्रभु का दर्शन खुब किया, फिर बोले चुप चाप।
गर प्रभु देना चाहते ,तो यह दो  वरदान।
मेरे घर आकर रहो ,पुत्र बने प्रभु आप।
एवमस्तु प्रभु ने कहा, चले गए निज धाम।
आगत जोनी में प्रभु ,उनके सूत भये राम।
दशरथ बने मनु तब, सतुरूपा  कौशिल्य।
दोनों ने खूब विधि से, पालन  किया  श्रीराम।
राम प्रतापी हो गए, मानस के हैं रत्न।
तुलसी बाबा ने लिखा राम कथा विधि रंग ।

Sunday, September 11, 2016

बिटिया रानी

बड़े धीरे चलो बिटिया रानी।
तुमसे ही जगत में है पानी।
तुमपे न्योछावर मात-पिता।
संघी,संघाती और जनप्रतिनिधी।
               बड़े धीरे चलो बिटिया रानी।

मुखड़ा तुम्हारा दमा-दम दमके।
कीरत तुम्हारी चमा-चम चमके।
तुम ही संसार की अद्भुत हो रचना।
सब कहते यह ,सब मानी।
             बड़े धीरे चलो बिटिया रानी।
तेरे सम्मान में जो अंख मूंदे हैं।
तुझको ही ढाल बना -आगे बढे हैं।
उनका समझ लो , लोक जगत  से -
उठ गया दाना -पानी।
             बड़े धीरे चलो बिटिया रानी।
तुम ही तो वीर हो , तुम ही वीरांगना।
तुम से ही खिलता है सबका अंगना।
तुम ही तू शान हो ,विद्व समाज की।
तुमको लिखे कवि  कल्यानी।
          बड़े धीरे चलो बिटिया रानी।
भू , जंगल ,पर्वत और पानी ,
तेरे रक्षार्थ ही रमे  हुए हैं।
 कृष्णा ने रक्षा की तेरे भले की ,
तू तो जगत की अमर बानी।
           बड़े धीरे चलो बिटिया रानी।


-उमेश चंद्र श्रीवास्तव 







Saturday, September 10, 2016

मुक्तक

                         ( १ )                        
राजनीति में तिकड़मबाजी , अब कुछ हो गयी ज्यादा।
आधे में सब सेवक -वेवक, आधा खाये प्यादा। 

                       (२ )
जनता मिमियाए तो उसको, मिल  जाता है दाना  । 
बाढ़ ,सूखा के नाम से उसको ,मिल जाता हर्जाना। 

                       (३ )
बोट के खातिर सब कुछ करते , बोट है माई-बाप।
 इस के पर जो बात करेगा , उसका रास्ता साफ। 

                        (४ )
नेता जी तो सदा -सदा से , मंचों पर मुस्काएं। 
देख-दाख वह भीड़-भाड़ को , सेवक पर हरसाये। 
सेवक पर हरसाये तो फिर ,दे दिया खूब 'होना '। 
सेवक का कैरेक्टर कैसा ,नहीं है इसपे जाना। 

                          (५ )
नहीं योग्यता कोई चाहिए , ना शिक्षा की डिग्री। 
नेता बनना हो तो चाहिए ,मात्र चमचागिरी। 

                          ( ६ )
भइया अब अखबारनबीसों की , हो गयी है चांदी । 
लेख लिखो ,रिपोर्ट लिखो काटो खूब अमादी। 

                                (७ )
आया मौसम चुनाव का ,लगे पोस्टर बीस। 
नेता जी मिमिया रहे हाथ जोड़ कर खीस।                          
      


 -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Friday, September 9, 2016

ओ जगत के प्राणी

मन की बात नहीं होती है ,
राजतंत्र की वाणी ।
लोगतंत्र में जनमन चलता ,
ओ जगत के प्राणी।
यह है भरत वर्ष ,
यहाँ की समृद्धि अतुलित है।
धन हो , चाहे सम्पदा हो ,
सब हैं यहाँ पर अक्षुण।
फिर कहे का 'बोल 'कर रहे -
चार दिनों के प्राणी।
माना  मिला  तुम्हे सत्ता में ,
बड़ी महत्ता भाई।
पर मत ऐंठो ,पर मत घूमो ,
देश  की पूंजी पर तुम।
बने , देश को आगे बढाओ ,
क्यों लेते  प्रतिशोध।
शोध कराओ तुम ऐसा कुछ ,
न हो कहीं विरोध।
अतुल तुम प्राणी होंगे।
वार्ना जनता बड़ी चतुर है ,
मत समझो ,नादानी।
सब कुछ मौन सुने जनता यह ,
सब कुछ जाने भाई।
वाणी का भी मतलब ,
जनता नहीं भुला पाती कुछ।
समय तो आने दो तुम ,
जनता करेगी फैसला।
जैसे गए, वही ही होगा ,
सम्हालो ओ तुम प्राणी।
अभी समय बहुत है  बाकी ,
गलती मत दोहराओ।
साफ - साफ तुम बात करो बस ,
जान को मत भरमाओ।
यह जनता खामोश रहेगी ,
नहीं कहेगी कुछ भी।
डींग हांक कर, सीना  ताने ,
मत गर्वित तुम डोलो।
बोलो प्यारे देश के रक्षक ,
सत्य बात ही बोलो।
मन से कलुषित बात हटाकर ,
जनवाणी को तौलो ।


-उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Thursday, September 8, 2016

कभी-कभी मेरे मन में

कभी-कभी मेरे मन में तुम याद आती हो ,
मुझे लगता है कि तुम बस यहीं कहीं पर हो।
जहाँ के लोग तो कहते हैं जो गया,वो गया,
मगर मुझे तो यही लगता कि तुम यहीं पर हो।
मुझे तो याद  है जब हम मिले थे पहली दफा ,
सफर सुहाना था जब हम साथ-साथ रहे।
सुहागरात थी घूंघट के ओट में तुम थी ,
दबी-दबी सी निगाहें झुकी-झुकी सी थी।
वो था मंजर सुखन-सुखनवर का ,
दबा के ओठ को  सिसकी थी मगर तुम चुप थी।
तुम्हारे मरमरी  हाथों की छुवन की वो कशिश ,
उफ़ ! वल्लाह , वो क्या था मंजर,वो क्या था लम्हा।
चांदनी रात में सब स्वप्न हकीकत थे वहां ,
कोई पोशीदगी नहीं थी सब कुछ था खुला ।


-उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Wednesday, September 7, 2016

चाँद, सूरज, गगन में सदा से यहाँ

चाँद, सूरज, गगन में सदा से यहाँ,
बस हमी हैं जो आते "औ" जाते रहे। 
बात उनकी रही तो वो है देयता,
हम तो लेने में जीवन गंवातें रहे। 
वे तापी हैं, बहुत रोज़ प्रहरी बने,
हम ख़ुशी हेतु जीवन बिताते रहे। 
हम अधिक खुश हुए "औ" अधिक चाहिए,
इसी गफलत में दुखड़ा सुनाते रहे। 
इसलिए वे बने, देयता-देवता,
हम तो नाहक में बस गुनगुनाते रहे। 
                                                      -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Tuesday, September 6, 2016

पुत्र-3

                 सुत का जन्म मुबारक तुमको, 
                 पुत्र अगर जब लायक हो। 
माना माँ का अंश पुत्र है,
पिता का भी है अंश मिला। 
जितना माँ उसको सीचती-
गर्भस्थ शिशु को, गर्भो में। 
उतना सिंचन गर बाहर  हो,
तब ही सुत अनमोल बने। 
माँ ही प्रथम गुरु है उसकी,
पिता तो गुरु दूजे ठहरे। 
माँ की छाती से वह लिपटा,
पिता पेट पर उछाले खूब। 
उसी तरह जीवन भर पालो,
खुद सुत को पोषित करके। 
सुता तुम्हारी खुदी बनेगी, 
राज्य और देश की महिमा। 
अपना परचम फहराएगी,
निज तिरंगा हाथ लिए। 
देश का मान सिखाना उसको,
देश हित में वह जिए। 
स्वार्थ वृति पनपे न उसमे,
देश के खातिर मरे सदा। 
तब ही दोनों ही अर्थो में,
मात-पिता सुख पाएंगे। 
गाँधी बाबा, नेहरू चाचा,
और सुभाष थे हुए महान। 
आज भी कीरत उनकी चलती,
धरती के थे अमर सपूत।
मात-पिता का नाम कर गए,
अपना परचम फहरा कर। 
अपना परचम फहरा कर। 
अपना परचम फहरा कर। 
                सुत का जन्म मुबारक तुमको, 
                पुत्र अगर जब लायक हो। 
                                                      -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Sunday, September 4, 2016

पुत्र -2

           सुत का जन्म मुबारक तुमको ,
           पुत्र अगर जब  लायक हो।
जीवन का सब अंधकार वो ,
टाले निज स्वविवेक से वो।
खुशियां जीवन भर वह पाए ,
अपना पुलक जगाये वो।
नात-हित और जन समाज पर ,
अपना अमित छाप छोड़े।
और भी प्रेरित हों -उस सुत  से ,
उसका कर्म महान बने।
राम पुत्र कौशल्या के थे  ,
भारत हुए कैकेई सूत।
पर दोनों ने अपना-अपना ,
ध्येय ,मार्ग बनाया खुद।
राम रम गए जन-जन भीतर ,
भारत बने आदर्श यहाँ।
लक्ष्मण की तो बात निराली ,
सुमित्रा के हुए  विलक्षण पुत्र।
ऐसे है सुत बने सभी के ,
मात-पिता गर सोचें तो।
वार्ना खुद के स्वार्थ भाव में ,
वह अपना जीवन जी लें।
पुत्र जन्मा हो या पुत्री हो ,
दोनों का निर्माण करें ।
जीवन के  सब पगडंडी का ,
उसको सत्य बताएं वो।
तभी सुयोग्य बनेगा तेरा ,
वह सुत हो या सुता  तेरी।
फैला कर वह निज यश कीर्ति ,
मात-पिता का नाम करेगा।
तब ही सार्थक जीवन तेरा ,
मात पिता का  खुद हो जायेगा।  




उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Saturday, September 3, 2016

पुत्र-1

सुत का जन्म मुबारक तुमको,
पुत्र अगर जब लायक हो। 
मात-पिता की सिद्धी  सफल है। 
पुत्र का मान, जो जनहित हो,
वरना जीवन भर तंगी में,
बात-बात में भ्रम की रहें,
काटों सा जीवन होता। 
कहने को सब अच्छा-अच्छा,
मगर टीस मन भीतर रहती। 
मात-पिता का प्रथम धर्म है। 
सुत को योग्य बनाये वो। 
निज कहना है, पुत्र योग्य-
तब ही बनता है, 
जब हम सब सतर्क रहे। 
बचपन से लेकर-उसको हम-
सदा सार्थक शिक्षा दे। 
भटके न रहो पर वह तो-
ऐसा मार्ग प्रशस्त्र   करें। 
उसकी अपनी मौलिकता हो,
अपना मत थोपे न कोई। 
वह जीए जीवन अपना ही,
मात-पिता के इक्षा बल। 
                  सुत का जन्म मुबारक तुमको,
                 पुत्र अगर जब लायक हो। (शेष कल )
                                                           उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Friday, September 2, 2016

गीत

खनके चूड़ी, कंगना "औ",
पायल बाजे छम-छम-छम। 
आहट तेरे आने की,
कुछ होती हर दम-दम-दम। 
रूप तेरा दर्पण है "औ",
नयन तेरे है नम-नम-नम। 
चाल तेरी मतवाली,
जो लय में होती हर दम-दम-दम। 
बात तेरी है शीरी,
जो मिश्री घोले पल-पल-पल। 
बात बताऊ क्या-क्या?
तू रूप की सागर हर दम-दम-दम। 
प्रभु ने तुम्हे बनाया,
कुछ फुरसत के ही छड़-छड़-छड़।   
                                                 उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...