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Tuesday, July 12, 2016

अनगढे पथ्थर तराशे जा रहे हैं

अनगढे पथ्थर तराशे जा रहे हैं,
भावना के बिंब उतर के आ रहे हैं। 
वह सुकोमल बालिका का पांव देखो,
और उसकी वह सरल मुस्कान देखो। 
माँ-पिता को प्रफुल्लित कर रही है,
भाव में उनके मधुरता भर रही है। 
कल बनेगी, वह पिता की शान होगी,
माँ के पावन आंचलों की मान होगी। 
संस्कारो की अमर वह बेल बन कर,
अन्य लोगो को बताएगी वह तनकर। 
मत करो अपमान, मेरी भ्रूण हत्या,
मैं अमर हूँ धात्री सुन लो ज़रा तुम। 
मेरे चलते हो रहा निर्माण सारा,
वर्ना बिचरो, बीज का क्या है सहारा ?
मैं दुखों को प्रेम में ही ढालती हूँ,
और पतझड़ में खिली मैं गुल वही हूँ। 
आओ बैठो पास मेरे मैं बताती,
मैं ही हूँ, दुनिया की सारी ही अमरता। 
आओ मेरे पास तुम भी रमण कर लो,
नारी हूँ, शक्ति हूँ, मैं हूँ स्वयं दुर्गा। 
मत करो अवसान मेरा मत करो तुम,
तुम करो सम्मान मेरा, बस करो तुम। 
वरण करती हूँ तुम्हे, आओ चमन में,
गुल जो सारे खिल रहे, वह सब तुम्हारे। 
मैं तुम्हारी, तुम हमारे, जगत  भर सब,
एक ही बंधु 'औ' कुटुंब सारे।
फिर बताओ, राग-द्वेष  का वरण कैसा ?
हम बने नभ के सितारे, सूर्य जैसा। 
जिसके आने से तिमिरपन दूर होता,
'औ' उजाला ही बना नूतन सवेरा। 
                                              -उमेश  श्रीवास्तव 

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